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व्रत-सूची
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जीवत्पुत्रिकाष्टमी : आश्विन कृष्ण अष्टमी पर; शालिवाहन राजा के पुत्र जीमूतवाहन की पूजा; यह नारियों द्वारा पुत्रों एवं सौभाग्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है; कृत्यसारसमुच्चय (१९) ।
जीवन्तिकाव्रत : कार्तिक की अमावास्या को मुख्यतः नारियों द्वारा दीवार पर कुंकुम से जीवन्तिका देवी की पूजा; अहल्याकामधेनु ( १०६२ ) ।
ज्ञानावाप्तिव्रत : चैत्र पूर्णिमा के उपरान्त एक मास तक; प्रति दिन नृसिंह की पूजा, प्रतिदिन सरसों से होम तथा मधु, घी, शक्कर से ब्रह्म- मोज ; वैशाख पूर्णिमा के पूर्व तीन दिनों तक तथा पूर्णिमा को उपवास; सोने का दान ; इससे मनीषा (बुद्धि) बढ़ती है; हे० व्र० (२,७४९-७५०, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण) ।
ज्येष्ठ-कृत्य : देखिए हे० ० (२,७५०-५१ ) ; कृ० र० ( १७९ - १९५ ); वर्षक्रियाको ० ( २५९-२८३ ) ; नि० सि० (९८ - १०१ ) ; स्मृतिकौस्तुभ ( ११७- १३७ ); पु० चि० ( ६ ) ; ग० प० (२३) । ज्येष्ठ शु० १, करवीरप्रतिपद् व्रत, देखिए ऊपर, 'दशहरा - स्नान' का आरम्भ; शुक्ल ३, 'रम्भात्रत' (देखिए नीचे ); शु० ४, सौभाग्यार्थ नारियों द्वारा उमा की पूजा ( कृत्यकल्पतरु का नयतकालिक काण्ड, ३८९-३९०, कृत्यरत्नाकर १८५ ); शु० ८, शुक्लदेवी की पूजा ( कृत्यकल्पतरु, नयतकालिक, ३९०; कृत्यर० १८६ एवं कालनिर्णय १९८ ) ; शु० ९, उमा - पूजा, उस दिन उपवास या नक्त, कुमारियों को रात्रि भोजन; शु० १०, जब सूर्य हस्त में होता है; मंगलवार को गंगा पृथिवी पर उतरी थी (स्मृतिको० ११९-१२० ); देखिए 'दशहरा,' गत अध्याय ४; जब पूर्णिमा ज्येष्ठा नक्षत्र में पड़ती है तो किसी ब्राह्मण को छाता एवं चप्पल दान में दी जाती हैं (विष्णुधर्मोत्तर पुराण ९०।१४ ) ; ज्येष्ठपूर्णिमा व्रत के लिए देखिए पद्मपुराण (५।७।१०-२८ ) ; जब ज्येष्ठा नक्षत्र पड़ता है और जब बृहस्पति एवं सूर्य रोहिणी में होते हैं तब इसे महाज्येष्ठी पूर्णिमा कहते हैं ( हेमाद्रि, काल०, ६४१; कालविवेक ३४८-४९, वर्षक्रियाकौ० ७८; नि० सि० १६१ ) ; ज्येष्ठ पूर्णिमा को मन्वादि कहा जाता है; पूर्णिमा को वेदों की पूजा, क्योंकि वे उसी दिन प्रकट हुए थे (नयतकालिक ३९०, कृत्यर० १९२ ) ; देखिए 'वटसावित्रीव्रत,' गत अध्याय ४; कृष्ण ८, शिवपूजा ( निर्णयसिन्धु ५६ ) ; कृष्ण १४, काले पुष्पों से रेवती की पूजा (नयतकालिक, पृ० ३८९, कृत्यरत्नाकर १८४ ) ; अमावास्या पर कुछ लोग वटसावित्रीव्रत करते हैं और वटवृक्ष की प्रदक्षिणा करते हैं ।
ज्येष्ठाव्रत : (१) भाद्रपद शु० ८ पर जब कि वह ज्येष्ठा नक्षत्र में हो; नक्षत्रव्रत अलक्ष्मी ( दारिद्र्य या दुर्भाग्य) को मिटाने के लिए ज्येष्ठा (लक्ष्मी एवं उमा के रूप में) की पूजा; यदि उस दिन रविवार हो तो इसे नीलज्येष्ठा कहा जाता है; हे० व्र० (२,६३०-६३८ ) ; नि० सि० १३५ - १३६; स्मृतिकौस्तुभ २३० - २३१; पु० चि० १३२-१३४; व्रतराज (२९२ - २९६ ); (२) भाद्रपद शुक्ल की उस तिथि पर जब कि ज्येष्ठा नक्षत्र हो ; १२ वर्षों तक प्रति वर्ष या जीवन भर के लिए; ज्येष्ठा देवी की प्रतिमा का पूजन एवं जागर (रात्रि का जागरण ) ; हे० ० (२, ६३८-६४० ) । यह व्रत उस नारी द्वारा किया जाता है जिसके बच्चे मर जाते हैं, या जिसको केवल एक पुत्र हो, इसे दरिद्र पुरुष भी करता है (भविष्योत्तर पुराण से उद्धरण) ।
दुष्टिराज पूजा : माघ शु० ४ पर; कर्ता को तिल के लड्डू (गणेश को नैवेद्य के रूप में) चढ़ाना चाहिए, स्वयं खाना चाहिए तथा तिल एवं घी का होम करना चाहिए; देखिए स्कन्द ० ( काशीखण्ड ५७।३३) जहाँ 'दुष्टि' शब्द की व्युत्पत्ति दी हुई है; और देखिए पु० चि० (९५ ) ; देखिए नीचे 'तिल चतुर्थी ।'
तपस् ( तप ) : यह शब्द कृच्छ्रं एवं चान्द्रायण जैसे प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित कृत्यों एवं ब्रह्मचारियों आदि के लिए बने नियमों के विषय में प्रयुक्त होता है। देखिए आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।२।५।१, नियमेषु तपश्शब्दः) । मन् (११।२३३-२४४) ; विष्णुधर्मसूत्र (९५) एवं विष्णुधर्मोत्तर पुराण ( ३।२६६ ) में तपों की प्रशंसाएँ एवं स्तुतियाँ की गयी हैं । देवल (कृत्यरत्नाकर १६) ने व्रतों, उपवासों एवं नियमों द्वारा शरीर को यन्त्रणा देने ( सुखाने
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