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धर्मशास्त्र का इतिहास जयविधि : दक्षिणायन रविवार को; वारखत; उपवास, नक्त, एकमक्त से सौ गुना फल मिलता है; कृत्यकल्पतरु (व्रत०१६); हेमाद्रि (व्रत० २, ५२५, भविष्यपुराण से उद्धरण)।
जयव्रत : हे० व० (२, १५५); पाँच गन्धर्वो की पूजा से जय प्राप्त होती है।
जयातिथि : तृतीया, अष्टमी एवं त्रयोदशी को जया कहा जाता है ; निर्णयामृत (३९) का कथन है कि इन तिथियों में युद्ध-सम्बन्धी कार्य तथा प्रेरणा देना सफल होता है।
जयाद्वादशी : पुष्य नक्षत्र के साथ फाल्गुन शु० १२ ऐसी कही जाती है ; इस दिन के दान एवं तप करोड़ों गुना फल देते हैं; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३४९); हे० (व्रत० १, ११४६)।।
जयापञ्चमी : हे०७० (१, ५४३-५४६); विष्णु-पूजा; मास या तिथि के विषय में कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है।
जयापार्वतीव्रत : आश्विन शु० १३ पर प्रारम्भ एवं तृतीया पर समाप्त; उमा एवं महेश्वर की पूजा; २० वर्षों तक ; प्रथम पाँच वर्षों तक नमक नहीं खाया जाता; पाँच वर्षों तक चावल खाना, किन्तु उसके साथ गन्ना के रस के किसी भी रूप का प्रयोग नहीं ; गुर्जरों में अति प्रसिद्ध ; व्रतार्क (२५१-२५३)।।
जयावाप्ति : आश्विन पूर्णिमा के उपरान्त प्रथमा से कार्तिक पूर्णिमा तक, विशेषतः कार्तिक पूर्णिमा के साथ अन्त के तीन दिन; विष्णु-पूजा; मुकदमों, जूओं, झगड़ों एवं प्रेम सम्बन्धी विषयों में विजय होती है; हेमाद्रि (व्रत० २, ७६८); व्रतप्रकाश (१९६)।
जयासप्तमी : (१) जब शु० ७ को कुछ नक्षत्रों (रोहिणी, आश्लेषा, मघा एवं हस्त) के साथ कोई ग्रह ] होता है; सूर्य-पूजा ; एक वर्ष; तीन दलों में मास बँटे रहते हैं, विभिन्न पुष्पों, धूप, नैवेद्य के साथ पूजा होती है; कृ० क० त० (व्रत० १२४ १२७); हे० व्रत० (१, ६६०-६६३); (२) रविवार के साथ शु०७; उपवास ; सूर्य; वर्षक्रियाकौ० (३५)।
जयकादशी : देखिए व्रतकोश, (सं० ९१०, पृ० २०५) ।
जलकृच्छ्वत : कार्तिक कृष्ण १४ पर; कृच्छ्र-व्रत ; विष्णु-पूजा; जल में रहते हुए उपवास ; विष्णुलोक की प्राप्ति; हे० (व्रत० ७६९)।
जलशयनव्रत : काकतीय सेनानायक की पत्नी कुप्पाम्बिका द्वारा सम्पादित। सम्भवतः यह जलकृच्छ ही है।
जाग्रद्गौरीपञ्चमी : श्रावण शु० पंचमी पर; सर्पो के भय से रक्षार्थ रात्रि भर जागरण ; गौरी देवी; ग० प० (७८)।
जातित्रिरात्रव्रत : ज्येष्ठ शु० १३ से ३ दिन तक; १२ को एकभक्त'; १३ से तीन दिन तक उपवास; ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं उनकी पत्नियों की (पुष्पों, फलों से) पूजा; तिल एवं चावल से यव (जौ) का होम ; अनसूया ने इसे किया था, इसी से उनके गर्भ से तीन देवता पुत्र-रूप में प्रकट हुए; हे० ७० (२, ३२०-२२); व्रतप्रकाश (९९)।
जामदग्न्यद्वादशी : वै० शु० १२ पर ; तिथि ; जामदग्न्य (परशुराम) के रूप में विष्णु-प्रतिमा की पूजा; मन्त्र यह है--'प्रीयतां मधसूदनो जामदग्न्यरूपी'; इस व्रत द्वारा वीरसेन ने नल को प्राप्त किया; वराह० (४४११. २१); कृत्यकल्पतरु (वत० ३२५-३२७); हेमाद्रि (व्रत० १, १०३२-३४)।
जिताष्टमी : देखिए व्रतकोश (सं० ४६९, पृ० १११)।
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