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व्रत-सूची स्मृतिको ० १०७ ) । जब चैत्र कृष्ण १३ शनिवार को शतभिषा नक्षत्र में हो तो उसे महावारुणी कहा जाता है, नि० सि० (८९) ; कृत्यसार - समुच्चय ( २-३ ) ।
चैत्रावली: देखिए ऊपर 'काममहोत्सव ।'
art पूर्णिमा: देखिए एपि० इण्डिका ( जिल्द १, पृ० २७१ ) में सारंगधर की चिन्त्र - प्रशस्ति, जिसमें व्यापारियों द्वारा किये जाने वाले पवित्र की व्यवस्था का उल्लेख है ।
छन्दोदेवपूजा फाल्गुन पूर्णिमा, अर्थात् पूर्णिमान्त गणना से चैत्र कृष्ण की एकादशी पर; स्वादिष्ठ भोज्य पदार्थो, सुगन्धित कुंकुम आदि तथा जल में रहने वाले जीवों के मांस से छन्दोदेव की पूजा; निर्णयामृत (५५)1
जन्मतिथिकृत्य : जन्म तिथि पर प्रति वर्ष गुरु, देवों, अग्नि, ब्राह्मणों, माता-पिता, प्रजापति एवं जन्म नक्षत्र की पूजा करनी चाहिए; अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनूमान, विभीषण, कृप, परशुराम, मार्कण्डेय का पूजन करना चाहिए ( क्योंकि ये सभी चिरंजीवी हैं) और मार्कण्डेय से यह प्रार्थना करनी चाहिए- 'मार्कण्डेय महाभाग सप्तकल्पान्तजीवन । चिरजीवी यथा त्वं भो भविष्यामि तथा मुने ।'; उस दिन मिठाई खानी चाहिए; मांस का प्रयोग नहीं करना चाहिए, ब्रह्मचर्य व्रत करना चाहिए तथा तिलयुक्त जल ग्रहण करना चाहिए । कृत्यकल्पतरु (नयतकालिक काण्ड, ४४७ ) ; समयप्रदीप ( ५० ) ; कृ० २० ( ५४० - ५४१ ) ; बर्षक्रिया कौमुदी ( ५५३-५६४); तिथितत्त्व (२०-२६); समय मयूख (१७५)।
जन्माष्टमी : देखिए 'कृष्णजन्माष्टमी', इसी सूची में ऊपर |
जय : यह शब्द इतिहास, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि के लिए प्रयुक्त होता है । देखिए कृ० २० (३०), तिथितत्त्व (७१), स्मृतिको ० ( ३०० ) । इन्हें जय इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके उपदेशों के पालन से व्यक्ति संसार से ऊपर उठ जाता है ( 'जयत्यनेन संसारम् ' -- तिथितत्त्व ने ऐसा कहा है, पृ० ७१) ।
जयदासप्तमी रविवार को पड़ने वाली शु० ७ जया या विजया कहलाती है; विभिन्न प्रकार के फलों एवं फूलों से सूर्य पूजा की जाती है; उस दिन उपवास, नक्त, एकभक्त या अयाचित होता है; हे० ० ( १, ७१७-७२०)।
जयन्तविधि उत्तरायण रविवार को सूर्य पूजा ; कृत्य कल्पतरु ( व्रत० १६-१७ ) ; हे० ( व्रत०२, ५२५) । हेमाद्रि में आया है--' जयन्त उत्तरर्क्षे आदित्यगण:'; जब कि कृत्यकल्प तरु ( व्रत० ) में आया है - ' जयन्तेत्युत्तरे ज्ञेयो अपने गणः ' ।'
जयन्तव्रत : इन्द्र के पुत्र जयन्त की पूजा; इससे प्रसन्नता की प्राप्ति होती है; हे० ( व्रत० १, ७९२ ) । जयन्तीद्वादशी : रोहिणी नक्षत्र की शु० १२; गदाधरपद्धति (कालसार प्रकरण ) ।
जयन्ती : (१) देखिए 'कृष्णजन्माष्टमी व्रत' ; (२) माघ शु० ७ को; एक वर्ष; सूर्य; मासों को चार दलों में बाँट दिया गया है, प्रत्येक दल में विभिन्न पुष्पों, धूपों, लेपों एवं नैवेद्य से पूजा; हे० ब्र० ( १, ६६४-६७ ) ; कृ० र० (५०५-८) ।
जयन्ती सप्तमी : यह 'जय तीव्रत' ही है ।
जयन्त्यष्टमी : भरणी नक्षत्र के साथ पौष की अष्टमी पर स्नान, दान, जप, होम, तर्पण, पुण्य के करोड़ों प्रकार हेमाद्रि ( काल० ६२७ ); पु० चि० ( १३८ - १३९ ) ।
जयपूर्णमासी : एक वर्ष तक प्रत्येक पूर्णिमा को नक्षत्रों से युक्त चित्रित चन्द्र की पूजा; हे० व्रत (२, १६०-१६२) ।
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