________________
१२६
धर्मशास्त्र का इतिहास चम्पाषष्ठी : भाद्र० शु०६; जब षष्ठी वैधृतियोग, मंगलवार एवं विशाखा नक्षत्र से संयुक्त रहती है तो उसे चम्पा कहते हैं; उपवास ; सूर्य-देवता; हे० ७० (१, ५९०-५९६); नि० सि० (२०९); स्मृतिको० (२२१२२२); व्रतराज (२३३-२३६) ने रविवार एवं वैधृतियोग से युक्त मार्गशीर्ष शु० ६ की तिथि भी दी है। स्मृतिकौस्तुभ (४३०) एवं अहल्याकामधेनु ने दोनों तिथियां दी हैं और कहा है कि मदनरत्न के मत से यह मार्गशीर्ष शुक्ल ६ को होती है, जब कि रविवार को चन्द्र शतभिषा नक्षत्र में होता है। वैधृति, मंगल एवं विशाखा के साथ यह ३० वर्षों में एक बार होती है। निबंधों के अनुसार उस तिथि पर विश्वेश्वर या किसी शिवलिंग का दर्शन करना चाहिए। नि० सि० (२०९) का कथन है कि महाराष्ट्र में मार्गशीर्ष शु० ६ को चम्पाषष्ठी कहा जाता है।
चान्द्रायणव्रत : पूर्णिमा से आरम्भ होता है; एक मास ; तर्पण; प्रतिदिन होम ; हे. (व्रत० २, ७८७७८९; देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड ४,पृ० १३४-१३८, जहाँ यह प्रायश्चित्त के लिए उल्लिखित है।
चातुर्मास्यव्रत : देखिए गत अध्याय ६; समयमयूख (१५०-१५२); बहुत-से नियम, यथा-तैल एवं तीक्ष्ण वस्तुओं, ताम्बूल, गुड़ आदि का त्याग ; मांस, मधु एवं मद्य आदि का सेवन वजित । हे० ७० (२,८००-८६१, यहाँ कुछ ऐसे व्रत भी उल्लिखित हैं जो वास्तव में चातुर्मास्य नहीं हैं)।
चान्द्रवत : मूल नक्षत्र के साथ मार्गशीर्ष की शु० प्रथमा को; चन्द्र-प्रतिमा के विभिन्न अंगों पर नक्षत्रों का न्यास; अनुशासन० ११०।
चित्रभानुपदद्वयव्रत : उत्तरायण के आरम्भ से अन्त तक अयनवत; सूर्य-पूजा; भविष्य० (ब्राह्मपर्व, १०७१७-३५); कृत्यकल्पतरु (व्रतखण्ड, ४३१-४३२)।
चित्रभानुव्रत : शुक्ल सप्तमी पर; तिथि; सुगन्धित लाल फूलों एवं घृतधारा से सूर्य-पूजा; स्वास्थ्य लाभ ; हे० ७० (१, ७८७)।
चूड़ामणि : कालविवेक (५२३, स्मृतिसमुच्चय से); का० नि० (३५१); ति० त० (१५४); स्मृतिकौ० (७०)।
चैत्र : कृत्य के लिए देखिए कृ० र० (८३-१४४); कृ० त० (४६२-४७४); नि० सि० (८१-९०); विशिष्ट व्रतों के नामों का उल्लेख है। चै० शु० १, वर्षारम्भ के लिए; नवरात्र; दमनक पौधे की पूजा (हेमाद्रि, का० ६१७); शु० १ को कल्पादि (स्मृतिकौ०८७); जलदान, चार मासों के लिए (कृ० र०८५), श्वपच अर्थात् चाण्डाल को छूना और फिर स्नान करना। (नयतकालिक काण्ड, ४२३); समयप्रदीप (५०); शु० २ को उमा, शिव एवं अग्नि की पूजा; शु० ३ मन्वादि-तिथि एवं मत्स्य-जयन्ती (नि० सि० ८०-८१); शु० ४ को लड्डुओं से पूजा (पु० चि० ९१); शु० ५ को लक्ष्मी-पूजा (कृ० र० १२७, स्मृतिकौ० ९२); उसी दिन नाग-पूजा भी (स्पतिकौ० ९३); शु० ६ को स्कन्दषष्ठी ; शु०७ को दमनक (दौना) के साथ सूर्य-पूजा (स्मृतिको० ९४); शु०८ को भवानी-यात्रा (स्मृतिको० ९४), ब्रह्मपुत्र में स्नान (कृ० र० १२६.); शु० ९ को भद्रकाली-पूजा (कृ० २० १२७); शु० १० को दमनक के साथ धर्मराजपूजा (स्मृतिकौ० १०१); शु० ११ को कृष्ण का दोलोत्सव एवं दमनक से ऋषियों की पूजा (कृत्यसार ८६, स्मृतिको० १०१); नारियाँ कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी की पूजा करती हैं और सन्ध्या को सभी दिशाओं में पञ्चगव्य छिड़कती हैं ; कृ० र० (१२९), शु० १२ को दमनकोत्सव (स्मृतिको. १०१-१०३) ; शु० १३ को चम्पक पुष्पों या चन्दन-लेप से कामदेव-पूजा (हेमाद्रि, काल०, ६३७; कालविवेक ४६९); शु०१४ को नृसिंहदोलोत्सव तथा दमनक से एकवीर, भैरव एवं शिव की पूजा (स्मृतिकौ० १०४); पूर्णिमा मन्वादि, हनुमज्जयन्ती एवं वैशाखस्नानारम्भ (स्मृतिको० १०६) ; कृष्णपक्ष १३, वारुणीयोग, (कृ० त० ४६३ ; नि० सि० ८९;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org