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व्रत-सूची
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उल्लेख किया है। चतुर्थी के तीन प्रकार हैं--'शिवा, शान्ता एवं सुखा।' देखिए भविष्य ० (१।३१।१-१०); वे क्रम से भाद्रपद शुक्ल, माघ शुक्ल एवं मंगलवार वाली चतुर्थी में पड़ती हैं; देखिए हेमाद्रि (व्रत० १, ५१४); वर्षक्रियाकौमुदी (३१)।
चतुर्दशीजागरण-व्रत : कार्तिक शु० १४ पर; तिथि ; ५ या १२ वर्षों के लिए; लगभग १०० की संख्या तक पहुंचने वाले घड़ों में रखे घी से लिंग को नहलाकर अन्य उपचारों एवं जागर से पूजा करना; कर्ता को दिव्य आनन्द एवं मोक्ष प्राप्त होता है; हे० (व्रत० २, १४९-१५१)।
चतुर्दशीव्रत : देखिए अग्नि (१९२); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३७०-३७८); हे० (व्रत०, २ २७-१५९); कालनिर्णय (२७८-२८०); वर्ष क्रियाकौमुदी (७६-७७); पु० चि० (२३१-२५१)। निबन्धों ने लगभग ३० चतुर्दशी-व्रतों की चर्चा की है। कृत्यकल्पतरु (व्रत०) ने केवल एक की चर्चा की है, यथा--शिव-चतुर्दशी।
चतुर्दश्यष्टमी : दोनों पक्षों की चतुर्दशी एवं अष्टमी पर; केवल नक्त विधि से भोजन करना; एक वर्ष ; शिव-पूजा ; लिंगपुराण (८३-४); हेमाद्रि (व्रत० २, १५८-१५९)।
चतुर्मूर्तिवत : विष्णुधर्मोत्तरपुराण (अध्याय १३७-१५१) में १५ के नाम आये हैं, जिनमें कुछ का वर्णन हेमाद्रि (व्रत० १, ५०५) में है।
चतुर्युगवत : चैत्र के प्रथम चार दिनों तथा आगे आने वाले महीनों में कृत, त्रेता, द्वापर एवं तिष्य (कलि) नामक ४ युगों की पूजा; एक वर्ष; केवल दूध पर ही निर्भरता; हे० (व्रत० २, ५०३-५०४); विष्णुधर्मोत्तर० (३, १४४।१-७)।
चतुःसम : देखिए गत अध्याय २ (गन्ध); हेमाद्रि (व्रत० १,४३-४४), व्रतराज (१६)। चन्द्रवर्शन-निषेध : देखिए गणेश चतुर्थी, गत अध्याय ८।
चन्द्रनक्षत्रवत : चैत्र पूर्णिमा, जिस दिन सोमवार हो; वार-व्रत; चन्द्र-पूजा; प्रारम्भ करने के सातवें दिन कांसे के पात्र में चन्द्र की रजत-प्रतिमा को रखना, पलाश की २८ या १०८ समिधाओं के साथ घी एवं तिल से चन्द्र के नाम पर होम; हेमाद्रि (व्रत० २, ५५७-५५८)।
चन्द्ररोहिणी-शायन : देखिए 'रोहिणीचन्द्र-शयन'; हेमाद्रि (व्रत० २, १७५-१७९) ।
चन्द्र-व्रत : (१) अमावास्या पर; एक वर्ष ; दो कमलों पर सूर्य एवं चन्द्र की पूजा; हे० (व्रत० २, २५६, विष्णुधर्मोत्तर० ३।१९०।१-५ से उद्धरण); (२) मार्गशीर्ष पूर्णिमा से प्रारम्भ ; एक वर्ष; प्रति पूर्णिमा पर उपवास; चन्द्र पूजा; हेमाद्रि (व्रत० २, २३६, विष्णुधर्मोत्तर० ३।१९४११-२); (३) पूर्णिमा पर; १५ वर्षों के लिए; उस दिन नक्त-भोजन; १००० अश्वमेधों एवं १०० राजसूयों के बराबर पुण्य' ; हे व्रत० (२, २४४-२४५); (४) चान्द्रायणव्रत' का सम्पादन तथा चन्द्र की स्वर्ण-प्रतिमा का दान; हे० ७० (२,८८४, पद्म०, मत्स्य ० १० ११७५); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४५०, मत्स्य० से उद्धरणं)।
चन्द्रषष्ठी : भाद्र कृ०६; कुछ लोगों के मतानुसार यह कपिलाषष्ठी है। नि० सि० (१५३); निर्णयामृत (५०); अहल्याकामधेन (४११) का कथन है कि इसे कपिलाषष्ठी कहना भूल है।
चन्द्रार्घ्यदान : जब किसी प्रतिपदा को (विशेषतः कार्तिक मास में) दूज के चन्द्र के साथ रोहिणी हो तो चन्द्रमा को अर्घ्य का दान पुण्यकारक होता है। ग० ५० (कालसार, ६०२, अग्निपुराण से उद्धरण) ।
चम्पकचतुर्दशी : शुक्ल १४, जब सूर्य वृषभ राशि में होता है; शिव-पूजा; कृत्यरत्नाकर (१९२) । - चम्पकद्वादशी : ज्ये० शु० १२; तिथि ; चम्पा के फूलों से गोविन्द-पूजा; गदाधरपद्धति (कालसार प्रकरण १४७)।
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