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धर्मशास्त्र का इतिहास
'को जागति' से 'कोजागर' शब्द बना है। इसे कौमदी भी कहते हैं (स्कन्द०) तथा 'कोजागर' शब्द सम्भवतः कौमदी-जागर का छोटा रूप है। कौमुदी-महोत्सव के लिए देखिए कृत्यकल्पतरु (राजधर्म, पृ० १८२-१८३) एवं राजनीतिप्रकाश (४१९-४२१)।
कौमुदीवत : आश्विन शुक्ल ११ से उपवास एवं जागर के साथ प्रारम्भ ; द्वादशी को कई प्रकार के कमलों के साथ वासुदेव-पूजा; वैष्णवों द्वारा त्रयोदशी को यात्रोत्सव ; चतुर्दशी को उपवास तथा पूर्णिमा को वासुदेव की पूजा एवं 'ओं नमो वासुदेवाय' नामक मन्त्र का जप; हे० (व्रत० २, ७६०); कालविवेक (२२३); स्मृतिको (३५५); अग्निपुराण (अध्याय २०७)। हेमाद्रि (व्रत०) के अनुसार यह कार्तिक में विष्णु के जागरण तक चलाया जा सकता है।
कौतुक : ९ वस्तुएँ इस नाम से कही जाती हैं, यथा--दूर्वा, यव (जौ) के अंकुर, वालक, आम की पत्तियाँ, हरिद्रा के दो प्रकार, सरसों, मोरपंख, साँप का केचुल; विवाह आदि में वे कंकण में बाँधी जाती हैं। हे० (व्रत० १, ४९); ७० र० (१६)। रघुवंश (८१) ने विवाह-कौतुक का उल्लेख किया है।
क्रमपूजा : कृ० र० (१४१-१४४) ने चैत्र से आरम्भ होने वाली तथा सभी मासों विशिष्ट तिथियों, नक्षत्रों में की जाने वाली दुर्गा-पूजा तथा उसके फल का उल्लेख किया है।
क्षीरधारावत : दो मासों को प्रतिपदा एवं पंचमी तिथियों पर; केवल दूध पर रहा जाता है; अश्वमेध का फल मिलता है; लिंगपुराण (८३।६)।
क्षीरप्रतिपदा : वैशाख या कार्तिक की प्रतिपदा (परिवा, प्रथमा) पर; तिथि ; एक वर्ष ; ब्रह्मा देवता; कर्ता अपनी सामर्थ्य के अनुसार 'ब्रह्मा मुझसे प्रसन्न हो' नामक शब्दों के साथ दूध चढाता है; हे० (व्रत० १। ३३६-३३८); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३६-३८); पवित्र वचनों का पाठ (यथा वसिष्ठधर्मसूत्र २८।१०-१५ में उल्लिखित), और देखिए शंखस्मृति, अध्याय-५।
क्षेमव्रत : चतुर्दशी को यक्षों एवं राक्षसों की पूजा; तिथि ; हे० (व्रत० २, १५४, विष्णुधर्मोत्तर० से एक श्लोक)।
खञ्जनदर्शन : देखिए गत अध्याय ७ ; तिथितत्त्व (पृ० १०३); नि० सि० (१९०); व० क्रि० कौ० (४५०)।
खड्गधाराव्रत : यह असिधाराव्रत ही है। देखिए विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।२१८।२३-२५) ।
गंगासप्तमी : वै० शु०७; गंगा-पूजा ; स्मृतिको० (११२); व्र० र० (२३७) । जऋषि ने क्रोध में गंगा को पी लिया और इसी दिन अपने दाहिने कर्ण से निकलने दिया।
गजच्छाया : आश्विन कृ० १३, मघा एवं हस्त नक्षत्र में सूर्य का योग। यह श्राद्ध का काल है। याज्ञ० (१।२१८) एवं मनु (३।२७४)। शातातप (हे०, चतुर्वर्गचिन्तामणि, काल, ३८६) का कथन है कि सूर्यग्रहण में भी गजच्छाया होता है और उस काल में श्राद्ध करने से अक्षय फल की प्राप्ति होती है।
गजराजनाविधि : हाथियों के समक्ष दीप की आरती करना। आश्विन पूर्णिमा को अपराह्न में; हे० (व्रत० २, २२६-२२७, गोपथ ब्राह्मण से उद्धरण)।
गजनीपूजाविधि : आश्विन की पूर्णिमा पर ; इसे करने से समृद्धि एवं धन मिलता है। हेमाद्रि (व्रत २, २२२-२२५)।
गणगौरीव्रत : चैत्र शु० ३; तिथि; विशेषतः सधवा नारियों द्वारा गौरी-पूजन ; कुछ लोग इसे गिरिगौरी-व्रत भी कहते हैं; अ० कामधेनु (२५७); मध्य देश में अति प्रचलित।
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