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कालीवत : यह कालरात्रि व्रत ही है; कृत्यकल्पतरु ( व्रतखण्ड २६३-२६९); और देखिए हेमाद्रि (व्रतखण्ड २, ३२६-३३२)।
किमिच्छकवत : मार्कण्डेयपुराण (१२२।८, १७, २०)। इसमें यह पूछा जाता है कि अतिथि क्या चाहता है और उसे वह दिया जाता है। करन्धम के पुत्र अविक्षित् की कथा है, उसकी माता ने यह व्रत लिया था और उसने अपनी माता के व्रत-सम्पादन के लिए वचन दिया था।
कोतिव्रत : संवत्सरवत; कर्ता अश्वत्थ वृक्ष, सूर्य एवं गंगा को प्रणाम करता है, एक स्थान पर इन्द्रिय-निग्रह करके ठहरता है, केवल एक बार मध्याह्न में खाता है; एक वर्ष तक ऐसा करता है; अन्त में एक ब्राह्मण एवं उसकी पत्नी को तीन गायों एवं एक स्वर्णवृष से सम्मानित करता है। इससे कर्ता को यश एवं भूमि मिलती है। कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४४२); हे ० (व्रत० २, ८६३-८६४)। मत्स्य ० (१०१॥ २३-२४) । यह तेरहवाँ षष्ठीव्रत है।
कोतिसंक्रान्तिव्रत : संक्रान्ति के दिन ; पृथिवी पर सूर्य-चक्र खींचा जाता है, उस चित्र के भीतर सूर्य की प्रतिमा रखी जाती है और पूजित होती है। एक वर्ष तक ; हे० (व्रत २,७३८-७३९, स्कन्दपुराण से)। बड़ा यश, लम्बी आयु, राज्य एवं स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
कुक्कुटी-मर्कटीव्रत : भाद्र शु० ७; तिथि; एक वर्ष ; प्रत्येक सप्तमी ; सभी पक्षों में; अष्टमी को ब्राह्मण-भोजन, जिसमें तिल की रोटी, चावल एवं गुड़ होता है; एक वृत्त में खचित अम्बिका के साथ शिव की पूजा; भविष्योत्तरपुराण (३६।१-४३); तिथितत्त्व (कुक्कुटी-व्रत); कर्ता को जीवन भर एक डोरक (सोने या चाँदी के तारों एवं सूत के धागों का गुच्छा) अपने हाथ (बाहु) में बाँधना होता है। कृष्ण ने युधिष्ठिर से वह गाथा कही है जिसमें रानी एवं उसके पति के पुरोहित की पत्नी के क्रम से मर्कटी (बन्दरी) एवं कुक्कुटी (मुर्गी) बन जाने की बात आयी है, क्योंकि वे दोनों डोरक पहनना भूल गयी थीं; वर्षक्रियाकौ० (३१९); ग०प० (८५)।
कुन्दचतुर्थी : भाघ शु० ४; तिथि ; देवीपूजा; कुन्द के फूलों, शाकों, नमक, शक्कर, जीरक आदि का कुभारियों को दान; चतुर्थी पर उपवास; कृत्यकल्पतरु (२८३-२८४), हे० व्र० (१, ५२५-५२६); समयप्रकाश (२७) ; व्रतप्रकाश (२८४) ; इसे गौरीचतुर्थी भी कहा जाता है, मुख्य बात चतुर्थी पर उपवास है, दानों से सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
कुबेरव्रत : तृतीया तिथि पर ; कुबेर-पूजा; हे० (व०, १, ४७८-४७९); कालनिर्णय (१७६)।
कुमारषष्ठी : चैत्र शु०६ को प्रारम्भ ; तिथि ; एक वर्ष ; बारह हाथों से युक्त स्कन्द की मिट्टी-प्रतिमा की पूजा; हे० (व०, ११५८८-५९०); व्रतप्रकाश (६१)।
कुमारीपूजा : नवरात्र में। देखिए गत अध्याय ९ एवं समयमयूख (२२)।
कुम्भपर्व : यह बारह वर्ष में एक बार होता है। सूर्य एवं चन्द्र मकर राशि में होते हैं, बृहस्पति वृषभ में होता है, अमावास्या होती है। इसे कुम्मयोग कहते हैं। प्रयाग में इस काल का स्नान एक सहस्र अश्वमेधों, एक सौ वाजपेयों तथा पृथिवी की एक लाख प्रदक्षिणा करने से प्राप्त पुण्य के बराबर फलदायक होता है। यह तीन भागों में होता है--मकरसंक्रान्ति, अमावास्या (जो प्रमुख है और पूर्णकुम्भ कहलाती है) एवं वसन्तपञ्चमी । कुछ लोगों के मत से तीन दिन यों है--मकरसंक्रान्ति, पौष-पूर्णिमा एवं अमावास्या। कुछ अन्य कुम्भ-योग भी हैं, हरिद्वार में जब बृहस्पति कुम्भ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है; नासिक में जब कि बृहस्पति सिंह राशि में, सूर्य एवं चन्द्र कर्कट में होते हैं तथा उज्जैन में जब कि सूर्य तुला में एवं बृहस्पति वृश्चिक में होता है।
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