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________________ ११६ धर्मशास्त्र का इतिहास १२३।८-११); शु० १३, देखिए 'लिंगार्चन व्रत'; शु० १४ पर वैकुण्ठ-चतुर्दशी होती है, इसे यथास्थान देखिए; बराहपुराण में आया है कि का० १४ को गृह-लक्ष्मी (मालकिन) प्राचीन काल में भोजन का स्वादिष्ठ कौर किसी बाज को देती थी और उसे दुर्गा तक पहुंचाने को कहती थी, आजकल वह स्वयं सबसे पहले खा लेती है और उसका पति उसे सम्मानित करता है (नयतकालिक ४२५, कृ० र० ४१३-१४); कार्तिक पूर्णिमा को तब महाकार्तिकी कहा जाता है जब चन्द्र एवं बृहस्पति दोनों इस तिथि पर कृत्तिका नक्षत्र में होते हैं या उस दिन रोहिणी नक्षत्र होता है (नयतकालिक ३७२); वर्षक्रियाकोमुदी (४८१); स्मृतिको० (४०६); हे०७० (२, १८१, ऐसा आया है कि यदि उपर्युक्त बातों के साथ पूर्णिमा सोमवार को पड़ जाय तो वह बहुत पवित्र हो जाती है, किन्तु ऐसा बहुत कम होता है--'ईदृशी बहुभिर्वषः बहुपुण्येन लभ्यते'); हेमाद्रि-चतुर्वर्गचिन्तामणि (६४१); कृ० र० (४३०-४३१), नि० सि० (२०७); कार्तिक पूर्णिमा पर कुछ लोग तुलसी-विवाह मनाते हैं (स्मृतिको० ३६६), कुछ लोग ब्रह्मा की रथयात्रा मनाते हैं (पद्म० ५।१७।२१७-२५३); इस दिन भविष्यपुराण के अनुसार लोग सांड़ छोड़ते हैं (स्मृत्तिकौ० ३९०-४०६); इसी पूर्णिमा को त्रिपुरोत्सव (सायंकाल) करते हैं और मन्दिरों में दीप-प्रकाश करते हैं (नि० सि० २०७,स्मृतिकौ० ४२७) और देखिए 'करक-चतुर्थी, करकाष्टमी, नरकचतुर्दशी, लक्ष्मी-पूजन।' कार्तिकवत : हेमाद्रि (व्रतखण्ड, २, ७६२-७६३, अग्निपुराण से); देवों, पितरों एवं मनुष्यों को घृत एवं मधु से युक्त भोजन देना; हरि-पूजन और दीप जलाने से व्रतकर्ता स्वर्ग जाता है। कार्तिकी-पूर्णिमावत : का० शु० १५; तिथि ; वैशाख, कातिक एवं माघ की पूर्णिभाओं का पूजन किया जाता है, उन दिनों स्नान करना एवं दान देना आवश्यक है, तीर्थ-स्थानों में स्नान करना एवं अपनी सम्पत्तिजन्य योग्यता के अनुसार दान देना पुण्यकारक ठहराया गया है। का० पूर्णिमा का सर्वोच्च तीर्थ पुष्कर है, वैशाख का उज्जयिनी एवं माघ का वाराणसी। इन दिनों केवल ब्राह्मणों को ही नहीं, प्रत्युत अपनी बहिन, बहिन के लड़के (भानजे), पिता की बहिन के पुत्र (फूफी के पुत्र अथवा फुफेरे भाई), भामा तथा अन्य दरिद्र सम्बन्धियों को भी दान दिये जाते हैं। रामायण में भरत ने कौसल्या के समक्ष शपथ ली, “यदि मेरे बड़े भाई मेरी राय (मति) से जंगल (वन) में गये हों तो देवों द्वारा सम्मानित वैशाख, कातिक एवं माघ की पूर्णिमाएँ मेरे विषय में बिना दान वाली हों।" हे. (व० २, १३७-१७१)। कार्तिकेयव्रत : षष्ठी तिथि ; कार्तिकेय' देवता; हे० (व०१, ६०५-६०६), व्रतकाल-विवेक (पृ० २४)। कातिकेय-षष्ठी : मार्गशीर्ष शु० ६; तिथि; कातिकेय की स्वर्ण, रजत, मिट्टी या काष्ठ की प्रतिमा का पूजन'; हे० (व्रत० १, ५९६-६००, भविष्योत्तरपुराण ४२।१-२९)। कालभैरवाष्टमी : मार्ग००८; तिथि ; कालभैरव देवता ; व्रतकोश (३१६-३१७); वर्षक्रियादीपक (१०६) । ... कालरात्रिव्रत : आश्विन शु०८; पक्षवत; सभी वर्गों के लिए; ७ या ३ या १ दिन के लिए, शारीरिक अवस्था के अनुसार उपवास; पहले गणेश, माताओं, स्कन्द एवं शिव की पूजा तब किसी कुण्ड में होम' जो किसी ऐसे ब्राह्मण द्वारा किया जाता है जो शिव रूप में दीक्षित हुआ रहता है या जो अव्यंग (मग ब्राह्मण या पारसी ?) कुलों का हो; आठ कुमारियों को खिलाया जाता है और आठ ब्राह्मणों को निमन्त्रित किया जाता है; हे०७० (२, ३२६-३३२, कालिकापुराण से उद्धरण)। कालाष्टमीव्रत : भाद्रपद कृ० ८, मृगशीर्ष नक्षत्र के साथ; तिथिव्रत ; एक वर्ष; वायुपुराण (१६॥ ३०-६६); कृत्यकल्पतरु (व्रत० २५८-२६३); हे. (व्रत० १, ८४९-८५३); इस दिन नन्दी या गणेश से रहित होकर शिवजी लिंगों में निवास करते हैं। कर्ता विभिन्न वस्तुओं से स्नान करता है, विभिन्न प्रकार के पुष्प चढ़ाता है तथा प्रत्येक भास में शंकर के विभिन्न नाम लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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