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व्रत-ची
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१, ७९० ) ; ( ४ ) पौष शु० ५ पर आरम्भ; तिथि ; कार्तिकेय के रूप में विष्णु की पूजा; पंचमी पर नक्त; षष्ठी को केवल एक फल सप्तमी पर पारण; एक वर्ष; कार्तिकेय की स्वर्ण-प्रतिमा तथा दो वस्त्रों का किसी ब्राह्मण को दान; इसी जीवन में कर्ता की सभी कामनाओं की पूर्ति हो जाती है । वराह० (६१।१-१२ ) एवं हेमाद्रि ( व्रत १, ६१५-६१६, यहाँ इसका नाम कामषष्ठी है) ।
कामषष्ठी : देखिए यहीं ऊपर संख्या ( ४ ) 1
कामावाप्तिव्रत: कृष्ण १४ पर; तिथि ; महाकाल (शिव) की पूजा; सभी कामनाओं की पूर्ति । हे० व्र० (२, १५५) ।
कामिकाव्रत : मार्ग० कृ० २; तिथि ; सोने के चक्र की प्रतिमा का पूजन एवं उसका दान । अहल्याकामधे
(२५१) ।
कार्तिक : कार्तिक के व्रतों के लिए देखिए हेमाद्रि ( व्रत २, ७६९-७८४), कृ० र० (३९७-४४२), वर्षक्रियाकौ० (४५३-४८१), नि० सि० (१९२-२०८), कृत्यसार - समुच्चय (२०-२६), स्मृतिकौ० ( ३५८-४२७), ग० प० (२४-३२ ) । यह पवित्र मास सभी तीर्थों तथा सभी यज्ञों से पवित्र है । इसके माहात्म्य के लिए देखिए स्कन्द ० ( वैष्णवकाण्ड, अध्याय ९), नारदीय० ( उत्तरार्ध, अध्याय २२) एवं पद्म० ( ६।९२) ।
कार्तिकस्नानव्रत : कार्तिक भर, घर के बाहर किसी नदी में स्नान, गायत्री जप एवं केवल एक बार हविष्य का भोजन करके व्यक्ति वर्ष में किये गये पापों से मुक्त हो जाता है; विष्णुधर्मसूत्र ( ८९ । १-४ ) ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत०, ४१८ ) ; हे० ० (२, ७६२ ) ; पद्म० (६।९१ एवं ११९/१२-१३; कालविवेक ( ३२४ ) ; नि० सि० ( १९२-१९४ ) ; स्मृतिकौ ० ( ३५८); ग० प० (कालसार, २७ - २९) । कार्तिक में वर्जित पदार्थों में एक है मांस । समयप्रकाश, एवं कृ० र० ( ३९७ - ३९९ ) ने इस विषय में महाभारत का उद्धरण दिया है कि कार्तिक में, विशेषतः शुक्ल पक्ष में मांस-त्याग सौ वर्षों तक किये गये तपों के सदृश है और ययाति, राम एवं नल ने कार्तिक में मांस नहीं खाया, अतः वे स्वर्ग गये । नारदीय० (२२।५८, उत्तरार्ध) में आया है कि कार्तिक में मांस सेवन से व्यक्ति चाण्डाल हो जाता | देखिए नीचे बकपञ्चक । पद्म० ( ३।३।१३ ) ; हे० ब्र० (२, ७६३-७६८ ) ; कृ० २० (४०३ - ४०४) ; कालविवेक ( ३२६ ) ; स्मृतिकौस्तुभ ( ३५८-५९ ) ; मुनि (अगस्त्य ) के पुष्पों से कार्तिक भर केशव पूजा अश्वमेध के फलों को देती है; तिथितत्त्व ( १४७ ) ।
चि०
का० शु० १, देखिए 'दिवाली' (गत अध्याय १० ) । शु० २ पर यम-पूजा (नि० सि० २०३, पु० ८३, स्मृतिको ० ३७७ ) एवं भ्रातृद्वितीया (देखिए अध्याय १०); शु० ३ पर सती देवी की पूजा (अ० का० २९५२९६); शु० ४ पर नागचतुर्थी ( ग० प० ८१ ); शु० ६ को महाषष्ठी कहा जाता है, इस दिन वह्निमहोत्सव होता है ( स्मृतिको० ३७८, पु० चि० १०२ ) ; इसकी विशेष महत्ता मंगलवार को होती है; शु० ८ को भगवती पूजा (कृत्यकल्पतरु का नैयतकालिकं काण्ड ४२४-४२५, कृत्यरत्नाकर ४१३ ); शु० ९ पर युगादि - तिथि (बिना पिण्ड के श्राद्ध ) एवं भगवती पूजा ( नैयतका० ४२४-४२५, कृ० २० ४१३ ); शु० १० को केवल सन्ध्याकाल दही खाना ( कालविवेक, ४२५, कृ० र०४२० ); शु० ११, बोधिनी या प्रबोधिनी एकादशी या उत्थान एकादशी, जब कि विष्णु शय्या से उठते हैं (नयतकालिक, ३९२, नि० सि० २०५ ) ; यह श्रीवैष्णवों के लिए विशिष्ट रूप से पवित्र है; इसी दिन तुलसी का विष्णु से विवाह हुआ था (स्मृतिकौ० ३६६, ३७८, व्रतराज ३८४-३८६), देखिए भीष्म पंचक व्रत भी; द्वादशी को तमिल आदि देशों में तुलसी विवाह व्रत किया जाता है; कुछ लोग द्वादशी को बोधन भी करते हैं (कृ० ० ४२६ ) ; देखिए योगेश्वर - द्वादशी; इस तिथि पर वराह अवतार की पूजा भी होती है (वराह०
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