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________________ व्रत-सूची ११३ करण-व्रत : देखिए बृहत्संहिता (अध्याय २९); विष्णुधर्मोत्तर० (११८३।२४); हे० ७० (२, ७१८७२६); स्मृतिको० (५६४-६४)। करवीरप्रतिपदावत : ज्येष्ठ शु० प्रथमा; तिथि ; मन्दिर के प्रांगण में उगे करवीर पौधे की पूजा; हे० ७० (१, ३५३); स्मृतिको० (११७); यह तमिल देश में प्रचलित है, किन्तु वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को। करिव्रत : प्रकीर्णक (कई, मिले-जुले); ब्रह्मा देवता; कृ० क० तरु (व्र० ४४९); हे व्र० (२, ९११); उपवास, दो हाथियों से युक्त एक स्वर्ण-रथ का दान। कलश : विवाह, मूर्ति-स्थापन, सेनाप्रस्थान, राज्याभिषेक आदि अवसरों पर कलश (एक या अधिक) का प्रयोग, संख्या १०८ तक जा सकती है, उनका घेरा--१५ से ५० अंगुल चौड़ा, १६ अंगुल लम्बा, आधार १२ अंगुल तथा मुख (मोहड़ा) ८ अंगुल। हे० ७० (११६०८) यहाँ व्युत्पत्ति दी हुई है--'कलां कलां गृहीत्वा च देवानां विश्वकर्मणा। निर्मितोऽयं सुरैर्यस्मात्कलशस्तेन उच्यते ॥' हे० ७० (११६५-६६), यहाँ कलशोत्पत्ति एवं नाप-तौल का उल्लेख है। एक पूर्ण कलश का उल्लेख ऋ० (३।३२।१५) में हुआ है। कल्किद्वादशी : भाद्र० शुक्ल १२; तिथि; कल्कि देवता ; वराह० (४८।१-२४); कृ० क० त० (व्रत० ३३२-३३३); हेमाद्रि (व्रत १, १०३८-३९)। कल्पवृक्ष-व्रत : संवत्सरव्रत ; मत्स्य० (१००) में उल्लिखित षष्ठीव्रतों में एक ; हे० ७० (२, ९१०-११); कृत्यकल्पतरु (व्रत ४४६)। कल्पादि : कल्पों के प्रारम्भ के विषय में ७ तिथियों का उल्लेख है, यथा-मत्स्य० में-वैशाख शु० ३; फाल्गुन कृ० ३; चैत्र शु० ५, चै० कृ० ५ (या अमावास्या ?), माघ शु० १३, कातिक शु० ७, मार्ग० शु० ९। ये श्राद्ध-तिथियाँ हैं। हेमाद्रि ने कल्पादि के रूप में ३० तिथियाँ दी हैं (नागरखण्ड)। मत्स्य० (२९०।३-११)। कल्पान्त : देखिए विष्णुधर्मोत्तरपुराण (१७७), जहाँ इसका वर्णन है। कल्याणसप्तमी : रविवार की शु० सप्तमी को प्रारम्भ होती है; उस तिथि को कल्याणिनी या विजया कहते हैं; एक वर्ष ; सूर्य-पूजा; तेरहवें मास में १३ गायों का दान। मत्स्य० (७४।५-२०), भविष्योत्तर० (४८।१-१६); हे• व्र० (१, ६३८-६४०); कृत्यकल्पतरु (व्रत० २०८-२११)। काञ्चनगौरी : भाद्र० शु० ३; तिथि; गौरी-पूजन; निर्णयामृत (३९), गदाधरपद्धति (कालसार, ७२)। काञ्चनपुरीवत : प्रकीर्णक व्रत (कई मिले-जुले); शु० ३, कृ० ११, पूर्णिमा, अमावास्या, अष्टमी या संक्रान्ति पर ; एक सुनहरी पुरी का दान, जिसकी दीवारें सोने, चांदी या सीसे की हों, स्तम्भ सोने, चांदी आदि के हों, उस निर्मित पुरी में लक्ष्मी एवं विष्णु की प्रतिमाएँ हों। हे०७० (२, ८६८-८७६); भविष्योत्तर० (१४७)। गौरी एवं शिव, राम एवं सीता, दमयन्ती एवं नल तथा कृष्ण एवं पाण्डवों द्वारा यह व्रत सम्पादित हुआ था। यह व्रत सब कुछ देता है और पापों से मुक्त करता है। कात्यायनीव्रत : भागवत (१०।२२।१-७)। कथा यों है कि नन्दव्रज की कुमारियाँ मार्गशीर्ष में पूरे मास तक कात्यायनी की प्रतिमा पूजती थीं जिससे कि कृष्ण उन्हें पति के रूप में प्राप्त हों। कान्तारदीपदानविधि : आश्विन पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक या तीन रातों तक (आश्विन पूणिमा, पाश्विन अमावास्या एवं कार्तिक पूर्णिमा) या केवल कार्तिक पूर्णिमा को अपनी योग्यता के अनुसार किसी यज्ञिय क्ष के स्तम्भ पर आठ दीप जलाना। धर्म, रुद्र एवं दामोदर देवता हैं। नैयतकालिक काण्ड (४५२-४५६); 50 र० (३८२-३८६) । यह व्रत प्रेतों एवं पितरों के कल्याण के लिए किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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