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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास १४८, भविष्यपुराण से उद्धरण) । ईश्वर-व्रत : कृष्ण १४ को; शिव पूजा ; हे० व्र० (२, उप्र नक्षत्र : तीनों पूर्वाएँ ( पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा, पूर्वाफाल्गुनी), मघा एवं मरणी उग्र नक्षत्र हैं । बृहत्संहिता ( ९७/८ ) । उत्तमभर्तृ प्राप्ति : वसन्त के शु० पक्ष की द्वादशी पर विष्णु देवता; वराहपुराण (५४।१-१९ ) । उत्तरायण : प्रत्येक अयन के आरम्भ में दान किये जाते हैं ( कालविवेक ५३६ एवं वर्षक्रिया कौ० २९२ ) और अयनों के आरम्भ में किये गये दान करोड़ गुना फल देते हैं, जब कि अमावास्या पर किये गये दान केवल सौगुना फल देते हैं ( राजमार्तण्ड, कालविवेक ३८१ वर्षक्रियाको ० २१४ ) । उत्थापन - एकादशी : कार्तिक शु० ११; गदाधरपद्धति (१८८ ) ; कृत्य सारसमुच्चय (४२), इसमें विष्णूत्यापन के लिए ३ मन्त्र हैं । उत्पत्येकादशी : देखिए व्रतकोश ( ६९४ ) । उत्सर्जन : देखिए निर्णय सिन्धु ( १२०-१२१ ) ; स्मृतिकौस्तुभ ( १६४ - १६७ ) ; इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड २, पृ० ८१५-८१८ । उत्सव : पुराणों एवं व्रत - सम्बन्धी ग्रन्थों में बहुत-से उत्सवों का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में होलिका, दुर्गोत्सव आदि का वर्णन पहले ही हो चुका है। कुछ का उल्लेख यथास्थान होगा। 'उत्सव' शब्द ऋग्वेद (१/१००/८ एवं १।१०२।१) में प्रयुक्त है और 'सू' से निष्पन्न है जिसका अर्थ है 'उत्साहित करना या प्रेरित करना ।' उदकसप्तमी : सप्तमी को केवल एक चुल्लू ( हथेलीभर ) पानी पीने से सुख मिलता है । कृ० क० त० ( व्र० १८४ ) ; हे० व्र० (१, ७२६) । उदसेविका : यह भूतमातृ-उत्सव ही है। यह इन्द्रध्वज के उपरान्त होता है (अर्थात् यह भाद्रपद शु० १३ को होता है) । यह उत्सव रोम में मनाये जाने वाले बच्चनेलिया के समान ही है। हेमाद्रि ( व्रत०२, ३५९ - ३६५), नैयतकालिक ( ४१३ -४२१ ) एवं कृत्यर० (३८७ - ३९५ ) में यह उत्सव स्कन्दपुराण के उद्धरण के साथ विस्तार से वर्णित है । इसका स्रोत भैरव एवं उदसेविका से है जो क्रम से शिव एवं पार्वती के मन से उत्पन्न हुए थे। वे दोनों पति-पत्नी हो गये । इस दिन सभी लोग कामुक विषयों में वाचाल हो उठते हैं। पुरुष एवं नारियाँ उन्मत्त एवं वातुल हो उठते हैं, गधों, बैलों एवं कुत्तों पर चढ़ते हैं, शरीर पर भस्म एवं पंक डाल लेते हैं, यहाँ तक कि सौ वर्ष के बुढ़ऊ बाबा ( बूढ़े व्यक्ति ) भी बच्चों जैसा व्यवहार करते हैं, लज्जाहीन हो जाते हैं; गाली बकते हैं, अश्लीलं गान गाते हैं, गोरक्षकों, डोमों, नाइयों के समान वस्त्र धारण करते हैं और नंगे घूमते हैं। स्कन्दपुराण में आया है कि जो व्यक्ति इस उत्सव में भाग नहीं लेता और पृथक् खड़ा रहता है उसके हव्य एवं कव्य को क्रम से देवता एवं पितर लोग नहीं ग्रहण करते । इस उत्सव के मनाने के काल एवं तिथि के विषय में मतभेद रहा है। देखिए हे० ० (२, ३६८), व्रतप्रकाश, जो इसे ज्येष्ठ कृ० से पूर्णिमा तक करने को कहते हैं । उद्दालक व्रत : देखिए वसिष्ठधर्म सूत्र (११/७६-७७ ) । यह पतितसावित्रीक के लिए व्यवस्थित है। हे० व्र० (२, ९३२) में ऐसा आया है कि दो मासों तक व्यक्ति आमिक्षा एवं उबाले हुए दूध पर रहता है, आठ दिनों तक दही पर और तीन दिनों तक घी पर रहता है और एक दिन पूर्ण उपवास करता है । उद्यापन : व्रत का अन्तिम कृत्य । कालतत्त्वविवेक (९५) में आया है कि कृष्णजन्माष्टमी जैसे व्रतों में, जो जीवन भर किये जाते हैं, कोई उद्यापन नहीं होता । ११० उन्मीलनीव्रत : द्वादशी से युक्त एकादशी । पद्म० ( ६।३७-३९ ) ; स्मृतिकौ ० ( २५० - २५२ ) । उपचार : प्रतिमा-पूजन के विविध विषय | देखिए गत अध्याय २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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