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प्रत-सूची
होते हैं। जो महत्त्वपूर्ण हैं, उन्हें पृथक् रूप से इस सूची में रखा गया है। कुछ कम महत्त्वपूर्ण यहाँ दिये जा रहे हैं। विष्णुधर्मोत्तर० (९०१२४-२५) में ऐसी व्यवस्था है कि इस मास में प्रतिदिन घी के दान से व्यक्ति अश्विनीकुमारों को प्रसन्न कर लेता है, सुन्दर हो जाता है तथा ब्राह्मणों को गाय के दूध (एवं रस से बने पदार्थों) को खिलाने से राज्य प्राप्ति होती है। शुक्ल १ को पिता के रहते पुत्र अपने मृत नाना का श्राद्ध करता है। इसी दिन नवरात्र मी आरम्भ होता है; शु० ४ को सती (पार्वती, जिसने उस दिन अपने को एक झील में फेंक दिया था) की पूजा अर्ध्य, पुष्पों आदि से की जाती है और पतिव्रताओं, माता, बहिन एवं अन्य सधवा नारियों को सम्मानित किया जाता है (कृत्यकल्पतरु का नयतकालिक काण्ड, कृत्यरत्नाकर ३४८); शु० पञ्चमी पर कुश के बने नागों की एवं इन्द्राणी की पूजा होती है (निर्णयामृत ४७; कृत्यरत्नाकर ३४८); शुक्लपक्ष में किसी शुभ नक्षत्र एवं मुहूर्त से युक्त तिथि पर पके अन्नों वाले खेत में बाजों एवं नृत्य के साथ जाकर होम करना चाहिए और नवान्न को दही के साथ खाना चाहिए और द्राक्षाफल (अंगूर) खाना चाहिए (नयल्कालिक, ४०७; कृत्यरत्नाकर ३४७); मूल नक्षत्र शुक्ल पक्ष में सरस्वती को आमन्त्रित करना चाहिए, पुस्तकों में (पूर्वाषाढ में) उसे प्रतिष्ठापित करना चाहिए, उत्तराषाढ में उसे हव्य देना चाहिए और श्रवण में विसर्जन करना चाहिए। उन दिनों में पढ़ना, पढ़ाना एवं लिखना नहीं चाहिए (निर्णयसिन्धु १७१, स्मृतिको० ३५२; पु० चि० ७३)।
__आषाढ-कृत्य : कृत्यरत्नाकर (१९६-२१८); कृत्यतत्त्व (४३४-४३७) ; वर्षक्रियाकौमुदी (२८३-२९२); नि० सि० (१०१-१०९); स्मृतिको० (१३७-१४८)।
इन्दुव्रत : ६० संवत्सर-व्रतों में ५८वाँ व्रत'; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४५१); हे० ७० (२, ८८३)। इसमें दिन में तीन बार किसी गृहस्थ एवं उसकी पत्नी को सम्मानित किया जाता है और वर्ष के अन्त में एक गाय दी जाती है।
इन्द्रध्वज-उत्थानोत्सव : वराह की बृहत्संहिता (अध्याय ४३); कालिकापुराण (९०); राजमार्तण्ड (१२६०-१२९२); हे० व० (२, ४०१-४१९); तिथितत्त्व (११५-११७); वर्षक्रियाकौमुदी (३२२-३२३); कालविवेक (२९४-२९९); कृत्यरत्नाकर (२९२-२९३) । यह राजा के लिए व्यवस्थित है। देखिए बुद्धचरित (सक्रेड बुक आव दि ईस्ट ४९, भाग १, पृष्ठ ११३), रघुवंश (४।३), मृच्छकटिक (१०१७); कालिका० (९०) कृत्यकल्पतरु (राजधर्म, १८४-१९०); राजनीतिप्रकाश (४२१-४२३), इसने विष्णुधर्मोत्तर पुराण से बहुत-से आशीर्वाद एवं प्रार्थना के मन्त्र उद्धृत किये हैं।
इन्द्रवत : ६० संवत्सर व्रतों में ४७ वाँ ; कृत्य क०, ० (४४९) । व्यक्ति को वर्षा ऋतु में बाहर सोना पड़ता है और एक दुधारू गाय का दान करना पड़ता है। मत्स्यपुराण (१०१।६९)।
इन्द्रपूर्णमासी : हे० ७ ० (२, १९६)। भाद्र पूर्णिमा पर उपवास ; तीस गृहस्थों का उनकी पत्नियों के साथ आभूषणों के सहित सम्मान करना। मोक्ष की प्राप्ति । देखिए गदाधरपद्धति (१७६) ।
इष्टजाति-अवाप्ति : विष्णुधर्मोत्तर० (३।२००।१-५);चैत्र एवं कार्तिक में आरम्भ ; ऋ० (१०।९०।१-१६) एवं १६ उपचारों के साथ हरि की पूजा तथा अन्त में एक गोदान।
ईशानवत : शुक्ल १४ और पूर्णिमा को जब गुरुवार हो, उस लिंग की पूजा, जिसकी बायीं ओर विष्णु हों और दायीं ओर खखोल्क (सूर्य); ५ वर्षों तक; प्रथम वर्ष के अन्त में एक गोदान, दूसरे वर्ष के अन्त में दो गायों का दान, तीसरे में ३, चौथे में ४ एवं पांचवें में ५ का। कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३८३-३८५); हे०७० (२, १७९-१८०)।
ईश्वरगणगौरी-व्रत : चैत्र कृष्ण १ से चैत्र शु० ३ के १८ दिनों तक, केवल सधवा नारियों के लिए; गौरी एवं शिव की पूजा; मालवा में अति प्रचलित; अहल्याकामधेनु (२३७)।
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