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व्रत-सूची
___ अहः : एक दिन। दिन के विभाजन के विषय में कई मत हैं, यथा--२, ३, ४, ५, ८ या १५ भागों में। पूर्वाह्न एवं अपराहू (मनु ३।२७८) नामक दो भाग ; तीन भाग यों हैं--पूर्वाह्न, मध्याह्न तथा अपराल; गोभिल (कालनिर्णय, पृ० ११० में उद्धृत) ने चार भाग बताये हैं, यथा--पूर्वाह्न (१३ प्रहर), मध्याह्न (एक प्रहर), अपराह्ण (तीसरे प्रहर के अन्त होने तक) तथा साया ह्न (दिन के अन्त' तक)। ऋ० (५।७६।३--उतायातं संगवे प्रातरतः) में पाँच भागों के तीन आये हैं, यथा--प्रातः, संगव, मध्यन्दिन । कौटिल्य (१।१९), दक्ष (अ० २) एवं कात्यायन ने दिन के आठ भागों का वर्णन किया है। देखिए कालिदास का नाटक विक्रमोर्वशीय (२११,
मागे)। दिन में १५ एवं रात्रि में १५ मुहूर्त होते हैं। देखिए बृहद्योगयात्रा (६४२-४) जहाँ १५ मुहूर्तों का उल्लेख है। विषुवत रेखा को छोड़कर एक ही स्थान पर वर्ष की विभिन्न ऋतुओं में कुछ सीमा तक मुहूर्तों की अवधि विभिन्न होती है, क्योंकि रात एवं दिन विभिन्न स्थानों पर बड़े या छोटे होते हैं। इसी प्रकार पूर्वाह्न या प्रातःकाल की अवधि ७३ मुहूर्त की होगी यदि दिन को दो भागों में बांटा जाय, किन्तु यदि दिन को पाँच भागों में बाँटा जाय तो पूर्वाह्ण या प्रातः में केवल तीन मुहूर्त होंगे। कालनिर्णय (पृ० ११२) में आया है कि पांच भागों का विभाजन वैदिक एवं स्मृतिग्रन्थों में प्रचलित है। हेमाद्रि (काल, ३२५-३२९), वर्षक्रियाकौमुदी (१८-१९), कालतत्त्वविवेचन (६, ३६७) ।
अहिंसावत : एक वर्ष तक मांस न खाना और अन्त में एक गाय एवं सुनहला हिरन दान करना; संवत्सरवत ; कृत्यकल्पतरु (४४४), हे. (व्रत २, ८६५, पद्म०, मत्स्य० १०१।३५ के उद्धरण)।
__ अहिर्बध्नस्नान : हे० (व्रत २, ६५४-६५५, विष्णुधर्मोत्तर० से उद्धरण); पूर्वाभाद्रपदा-नक्षत्र में व्रत करने वाले को उदुम्बर की पत्तियों,पंचगव्य, कुश, चन्दन आदि से युक्त दो घड़ों के जल से स्नान करना होता है, अहिर्बध्न, सूर्य, वरुण, चन्द्र, रुद्र एवं विष्णु की पूजा होती है। बृहत्संहिता (९७१५), भविष्योत्तरपुराण (हे०, ७० २, ५९६ एवं कृत्यरत्नाकर ५६०) के मत से उत्तराभाद्रपदा के देवता हैं अहिर्बुध्न्य । समी नक्षत्रों के देवता के लिए देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड २, पृ० २४७। इस स्नान से सहस्रों गायों एवं सर्वोत्तम समृद्धि की प्राप्ति होती है। अहिर्बुध्न्य' शब्द प्राचीन एवं शुद्ध है। सम्भवतः यह अग्नि का द्योतक है, देखिए ऋ० १११८६।५, २१३१६ आदि।
आकाशदीप : किसी देवता के लिए या किसी मन्दिर या चौराहे पर घृत या तेल के दीप जलाना। अपरार्क (३७०-३७२, दीपदान); मनु (४।२९); राजमार्तण्ड (१३५१-५७); निर्णयसिन्धु (१९५) ।
आग्नेयव्रत : किसी नवमी को एक बार ; पुष्पों (पाँच उपचारों) के साथ विन्ध्यवासिनी की पूजा; हे. (व्र० १, ९५८-५९, मविष्योत्तर० का उद्धरण है)।
आज्ञासंक्रान्ति : यह संक्रान्तिव्रत है; किसी पवित्र संक्रान्ति से प्रारम्भ ; सूर्य देवता; अरुण, रथ एवं सात घोड़ों के साथ सूर्य की स्वर्ण-मूर्ति का दान ; चतुर्दिक विजयश्री प्राप्त होती है ; हे० ७० (२,७३८)।
__ आज्यकम्बल-विधि : भुवनेश्वर की १४ यात्राओं में एक; जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है; गदाधरपद्धति (१९१)।
आदित्यवार : जब यह कुछ तिथियों, नक्षत्रों एवं मासों में युक्त होता है तो इसके कई नाम (कुल १२) होते हैं। माघ शु० ६ को यह नन्द कहलाता है, जब कि व्यक्ति केवल रात्रि में खाता है (नक्त), सूर्य-प्रतिमा पर घी से लेप करता है, अगस्ति वृक्ष के फूल, श्वेत चन्दन, गुग्गुलु-धूप एवं अपूप (पूआ) का नैवेद्य चढ़ाता है (हे०, ३० २, ५२२-२३); भाद्रपद शुक्ल में यह रविवार भद्र कहलाता है, उस दिन उपवास या केवल रात्रि में भोजन किया जाता है, दोपहर को मालती-पुष्प, चन्दन एवं विजय धूप चढ़ायी जाती है; हे०, व्र० (२.
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