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धर्मशास्त्र का इतिहास
अशोकप्रतिपदा : आश्विन शुक्ल १; तिथि ; अशोक वृक्ष या उसकी स्वर्ण या चाँदी की प्रतिमा की पूजा; केवल नारियों के लिए; हे० व्र० (१,३५१-५२ ) ।
अशोकषष्ठीः : देखिए व्रतकोश ( संख्या ५२ ) ।
अशोक-संक्रान्ति : व्रतार्क; जब व्यतिपात होता है उस समय अयनसंक्रान्ति या विषुवसंक्रान्ति पर की जाती है; एक भक्त सूर्य पूजा, तिल दान ।
अशोकाष्टमी : (१) चैत्र शु० ८; यदि बुध हो और पुनर्वसु नक्षत्र हो तो विशेष पुण्य होता है; अशोक के पुष्पों से दुर्गा की पूजा; अशोक की आठ कलियों से युक्त जल पीना तथा 'त्वामशोक हरामीष्टं मधुमाससमुद्भवम् । पिबामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु ॥' इस मन्त्र के साथ अशोक वृक्ष की पूजा करना । कालविवेक (४२२ ) ; हेमाद्रि (काल, ६२६), हेमाद्रि ( व्रत० १, ८६२-६३ एवं ८७५-८७६ ) ; कृत्यरत्नाकर (१२६१२७); राजमार्तण्ड (१३७९-१३८० ) ; पुरुषार्थचिन्तामणि ( १०९ ) ; स्मृतिकौ० (९४) । ( २) कालविवेक (४२२ ) ; कृत्यरत्नाकर ( १२६ ) ; कृत्यतत्त्व (४६३) आदि निबन्धों में आया है कि चैत्र शु० ८ को सभी तीर्थ एवं नदियाँ ब्रह्मपुत्र में आ जाती हैं और उस दिन के स्नान से, जब कि बुधवार पुनर्वसु नक्षत्र में पड़ता है, वाजपेय के समान फल मिलता है।
अशोककाष्टमी : उमा की पूजा । नीलमतपुराण ( पृ०७४, श्लोक ९०५-९०७) में आया है कि अशोक वृक्ष स्वयं देवी है ।
अश्वत्थव्रत : व्रतार्क ( अद्भुतसागर से ) ; बुरे शकुनों (अपशकुनों), आक्रमणों, महामारियों, कुष्ठ जैसे रोगों में अश्वत्थ - पूजा ।
अश्वदीक्षा : जब आश्विन शु० की नवमी में चन्द्र स्वाति में रहता है, उच्चैःश्रवा की पूजा होती है और अपने घोड़े का भी सम्मान किया जाता है; घोड़े के गले में चार रंगों के धागे बाँधे जाते हैं और शान्ति कृत्य किये जाते हैं । नीलमतपुराण ( पृ० ७७, श्लोक ९४३-९४७) ।
अश्वपूजा : आश्विन शुक्ल की प्रथम तिथि से नवमी तक । देखिए नीचे 'आश्विन' ।
अश्वव्रत : संवत्सरव्रत; देवता इन्द्र; मत्स्य० ( १०१।७१ ) ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४४९ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० २, ९११)।
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अष्टमीव्रत : लगभग ३० अष्टमीव्रत होते हैं, जो यथास्थान वर्णित होंगे। सामान्य नियम यह है कि शुक्ल पक्ष में जब अष्टमी नवमी से युक्त रहती है तो उसे अच्छा समझना चाहिए और कृष्ण पक्ष में सप्तमी से युक्त अष्टमी को । तिथितत्त्व (४० ) ; धर्मसिन्धु (१५) । अष्टमी व्रतों के लिए देखिए हेमाद्रि ( व्रत० १, ८११-८८६ ) ; कालनिर्णय ( १९४-२२८ ) ; कृत्यकल्पतरु ( २२५-२७२ ) ; व्रतराज ( २५६- ३१९ ); वर्षक्रियाको ० (३८-४० ) ; पुरुषार्थचि ० ( १०९-१३९) । उक्त नियमों के कुछ अपवाद भी हैं, जिनमें कुछ यथास्थान वर्णित होंगे। असिधाराव्रत : आश्विन शु० १५ को आरम्भ; आश्विन १५, कार्तिक १५ या आषाढ़ से चार मास के समय ५ या १० दिन, या एक वर्ष, या १२ वर्ष; खाली भूमि पर सोना, घर के बाहर सोना, केवल रात्रि में खाना, पत्नी के आलिंगन में सोते हुए भी सम्भोग क्रिया से दूर रहना, क्रोध न करना, हरि के लिए जप एवं होम करना । अवधियों के अनुसार विभिन्न फल प्राप्त होते हैं, यथा-- १२ वर्षों के उपरान्त व्रत करने वाला अखिल विश्व का शासक हो सकता है और मरने के उपरान्त जनार्दन से मिल जाता है। यह सबसे बड़ा फल है। विष्णुधर्मोत्तर ० ( ३।२१८1१-२५ ) ; हेमाद्रि (०२, ८२५-८२७) । इस व्रत का अर्थ यह है कि यह उतना ही तीक्ष्ण एवं कठिन है जितना कि तलवार (असि) की धार पर चलना । रघुवंश (१३/६७)।
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