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________________ व्रत-सूची १०३ दोनों की प्रतिमाओं की पूजा; कृत्यकल्पतरु (व्रत ७०-७५); हेमाद्रि (व्रत १, ४३९-४४४); कृत्यरत्नाकर (४५२४५५); भविष्योत्तर० (२२)। ____ अवैधव्यशुक्लकादशी : चैत्र शु० ११; हेमाद्रि (व० १, ११५१, इसमें विष्णुधर्मोत्तर का केवल एक श्लोक है)। ___ अव्यङ्गसप्तमी : श्रावण शु०७; तिथि ; प्रतिवर्ष सम्पादित की जाने वाली; सूर्य को अव्यंग दिया जाता है। अव्यंग एक छिछला (पुटाकार) वस्त्रखण्ड, जो कपास की रुई के सूत से बना होता है, जो सर्प के फण के सदृश होता है, और १२२ अंगुल लम्बा (उत्तम) या १२० अंगुल लम्बा (मध्यम ) या १०८ अंगुल लम्बा होता है। यह आधुनिक पारसियों द्वारा पहनी जाने वाली कुस्ती के समान होता है। भविष्य ० (ब्राह्मपर्व ३, १-८); भविष्य ० (ब्रा० १४२।१-२९) में अव्यगोत्पत्ति की कथा है। १८ वें श्लोक में 'शारसनः' शब्द आया है जो 'सारसेन' (एक मुस्लिम जाति) का स्मरण दिलाता है। सम्भवतः यह जेन्द अवेस्ता (पारसियों के धार्मिक ग्रन्थ) के 'ऐव्यंधन' (मेखला या करधनी) का रूपान्तर है। सम्भवतः यह विधि पारसियों से उधार ली हुई है। बृहत्संहिता (५९।१९) में आया है कि सविता के पुरोहितों को मग या शाकद्वीपीय ब्राह्मण होना चाहिए (देखिए इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द ८, ३२८ एवं कृष्णदास मिश्र की मगव्यक्ति का वेबर-संस्करण)। अशून्यशयनवत या अशून्यशयन द्वितीया : श्रावण के उपरान्त चार मासों की कृष्ण द्वितीया को; तिथि; लक्ष्मी एवं हरि की पूजा; विष्णुधर्मोत्तर० (१११४५।६-२० एवं ३।१३२।१-१२); वामन० (१६।१६-२९), अग्नि० (१७७।३-१२), भविष्य ० (१।२०।४-२८); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४१-४४)। हे० ७० (१, ३६६-३७१) । इस व्रत से नारियों को अवैधव्य एवं पुरुषों को अवियोग की अवस्था की प्राप्ति होती है। हे० व० (१, ३७३) में आया है--'लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं सदा। शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथात्र मधुसूदन कृत्यरत्नाकर (पृ० २२८)। अशून्यवत : श्रावण से आगे चार मासों तक कृष्ण पक्ष की द्वितीया को; दही का अर्घ्य, चन्द्र को अक्षत एवं फलों की आहुति ; यदि द्वितीया तृतीया से विद्धा हो तो व्रत का सम्पादन उसी दिन होना चाहिए; पुरुषार्थचिन्तामणि (८३)। अशोककलिकाभक्षण : देखिए 'अशोकाष्टमी'। अशोकत्रिरात्र : ज्येष्ट, माद्र० या मार्ग० शु० की त्रयोदशी से तीन रातों तक, उस दिन चाँदी के अशोक वृक्ष, ब्रह्मा एवं सावित्री की मूर्तियों की पूजा; दूसरे दिन उमा एवं महेश्वर की तथा तीसरे दिन लक्ष्मी एवं नारायण की पूजा और उसके उपरान्त मूर्तियों का दान; यह व्रत पापों को काटता है, रोगों का नाश करता है तथा पुत्रों एवं पौत्रों को लम्बी आयु, यश, सम्पत्ति एवं समृद्धि प्रदान करता है। हे व्र० (२, २७९-२८३); ७० प्र०, व्रतार्क; अधिकांशतः नारियों के लिए। __ अशोकद्वादशी : यह विशोकद्वादशी ही है। आश्विन में प्रारम्भ; एक वर्ष; दशमी को हलका भोजन, एकादशी को उपवास, द्वादशी को पारण ; केशव-पूजा; परिणाम--स्वास्थ्य, सौन्दर्य, दुःख से मुक्ति; मत्स्य० (८१।१२८, ८२।२६-३०); हे ०७० (१, १०७५-१०७८)।। अशोकपूर्णिमा : फा० पूर्णिमा को; तिथि ; एक वर्ष; प्रथम चार एवं आगे के चार मासों में पृथिवी को अशोका कहा जाता है ; पृथिवी-पूजा एवं चन्द्र को अर्घ्य ; प्रथम चार मासों में पृथिवी को धरणी कहकर, आगे के चार मासों में मेदिनी कहकर तथा अन्तिम चार नासों में वसुन्धरा कहकर पूजा जाता है। प्रत्येक चार मासों के अन्त में केशव की पूजा होती है। अग्निपुराण (१८४।१); हेमाद्रि (व्रत० २, १६२-१६४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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