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धर्मशास्त्र का इतिहास अर्थोदय-प्रत : यह एक करोड़ सूर्य-ग्रहणों की पवित्रता के समान है ; बहुत कम किया जाता रहा है। पश्चात्कालीन निबन्धों (तिथितत्त्व १८७, कृत्यसारसमुच्चय ३०, निर्णयसिन्धु २११, स्मृतिकौस्तुभ ४४२-४४५, पुरुषार्थचिन्तामणि ३१६) ने महाभारत से उद्धरण दिया है.---'जब पौष या माध में श्रवण-नक्षत्र एवं व्यतिपातयोग के साथ अमावास्या होती है तो उसे अर्धोदय एवं व्रतार्क कहा जाता है।' भट्ट नारायण के प्रयागसेतु के मत से अमान्त गणना के अनुसार यह पौष में तथा पूर्णिमान्त गणना के अनुसार माघ में होता है। हे० (व्रत २, २४६-२५२); तिथितत्त्व (१८७); व्रतार्क (३४८); पुरुषार्थचिन्तामणि (३१६)। अर्थोदय में प्रयाग में प्रातः स्नान महापुण्यकारक होता है, किन्तु ऐसा आया है कि अर्धोदय में सभी नदियाँ गंगा के समान हो जाती हैं। इस व्रत के देव तीन हैं-ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश और वे उसी क्रम में पूजित होते हैं। पौराणिक मन्त्रों एवं तीन वैदिक मन्त्रों के साथ (ऋ० १०।१२१।१०, १।२२।१७ एवं ७५९।१२) घृत की आहुति (अग्नि में) दी जाती है। अन्त में गायों एवं धन का दान होता है। यह द्रष्टव्य है कि प्रति पांचवें वर्ष में हर्षवर्धन द्वारा प्रयाग में दान करना अर्धोदय व्रत नहीं था।
अलक्ष्मीनाशक-स्नान : पौष की पूर्णिमा को जब पुष्य नक्षत्र हो तब शरीर में सरसों का तेल लगाकर स्नान करने से अलक्ष्मी (अमाग्य) भागती है। उस समय नारायण, इन्द्र, चन्द्र, बृहस्पति एवं पुष्य की प्रतिमाओं की पूजा होती है, उन्हें सवौं षधियों से युक्त जल से स्नान कराया जाता है और होम किया जाता है। देखिए स्मृतिकौस्तुभ ३४४-३४५; पुरुषार्थचिन्तामणि (३०७) एवं गदाधरपद्धति (१७८)। ___अलवणतृतीया : किसी भी मास, विशेषतः वै०, मा० या मा० की शु० तृतीया को; केवल नारियों के लिए; द्वितीया को उपवास एवं तृतीया को बिना नमक का भोजन; गौरी-पूजा; यह जीवन भर के लिए हो सकता है; कृत्यकल्पतरु (व्रत०, ४८-५१); हे० ० (१, ४७४-४७७), समयप्रदीप; भविष्य० (ब्राह्मपर्व २१।१-२२)।
अवतार : उनके प्रकट होने की तिथियों पर। इन्हें जयन्ती भी कहते हैं। निर्णयसिन्धु (८१-८२); कृत्यसारसमुच्चय में-मत्स्य : चैत्र शु० ३; कूर्म : वै० पूर्णिमा; वराह : भाद्र० शु० ३; नरसिंह : वै० शु० १४; वामन : माद्र० शु० १२; परशुराम : वै० शु० ३; राम : चै० शु०९; बलराम : भाद्र० शु० २; कृष्ण : श्रावण कृष्ण ८; बुद्ध : ज्ये० शु० २। कुछ ग्रन्थों में ऐसा आया है कि कल्की अवतार अभी प्रकट होने वाला है, किन्तु ग्रन्थ इसकी जयन्ती के लिए श्रावण शुक्ल ६ तिथि मानते हैं। देखिए वराहपुराण (४८।२०-२२) जहाँ दशावतारों की पूजा का उल्लेख है; कृत्यकल्पतरु (७० ३३३); हे० (७० १, १०४९)।
अवमदिन : वह दिन जब दो तिथियों का अन्त होता है। नि० सि० (१५३) में रत्नमाला से उद्धरण है--"यत्रैकः स्पृशते तिथिद्वयावासानं वारश्चेदवमदिनं तदुक्तमार्यैः।" किसी व्रत के आरम्भ के लिए इसका परिहार करना चाहिए क्योंकि यहाँ एक तिथि का क्षय है।
अविघ्नविनायक या अविघ्नवत : (१) फा० चतुर्थी ; तिथि ; ४ मास ; गणेश-पूजा। हे०७० (१,५२४५२५), कृत्यकल्पतरु (व०, ८२-८३)--दोनों ने वराह० (५९।१-१०) को उद्धृत किया है; (२) दोनों पक्षों की चतुर्थी ; तीन वर्ष ; गणेश-पूजन; निर्णयामृत (४३, भविष्योत्तर० से उद्धरण)।
अवियोगद्वादशी : भाद्र० शु० १२; तिथि ; शिव एवं गौरी, ब्रह्मा एवं सावित्री, विष्णु एवं लक्ष्मी तथा सूर्य एवं उनकी पत्नी निक्षुभा की पूजा। हेमाद्रि (ब० १, ११७७-११८०)।
अवियोगवत या अवियोग-तृतीया : स्त्रियों के लिए; मार्ग० शु० २ को प्रारम्भ ; तृतीया को खीर खाना; गौरी एवं सम्मु की पूजा; एक वर्ष ; बारह मासों में विभिन्न फूलों के साथ विभिन्न नामों से चावल के आटे से बनी
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