________________
व्रत-सूची कृष्ण पक्ष, दशमी से त्रयोदशी तक माता पृथिवी एवं नदियाँ अपवित्र मानी जाती हैं। देखिए हेमाद्रि (काल पर चतुर्वर्ग-चिन्तामणि, ७०१-७०३)।
___ अयनवत : अयन सूर्य की गति पर निर्भर रहता है। दो अयन होते हैं। जब सूर्य कर्कट राशि में प्रवेश करता है तब दक्षिणायन का आरम्भ होता है। कालनिर्णयकारिका (१४) में आया है--"दक्षिण एवं उत्तर अयन क्रम से भयंकर एवं शान्त कृत्यों के लिए हैं" और उसके विवरण में आया है कि माताओं, भैरव, वराह, नरसिंह, वामन एवं दुर्गा की मूर्तियाँ दक्षिणायन में स्थापित की जाती हैं। कृत्यरत्नाकर (२१८), हेमाद्रि (काल, १६); समयमयूख (१७३); समयप्रकाश (१३)।
____ अयाचितव्रत : बिना मांगे प्राप्त भोजन पर रहना। कालनिर्णय (१३८-१३९); निर्णयामृत' (१९); कालतत्त्वविवेचन (२१४-२१८); पुरुषार्थ-चिन्तामणि (४९)।
अरण्यद्वादशी : मार्ग० शु०११ या कार्तिक, माघ, चैत्र या श्रावण में प्रातः स्नान से आरम्भ; तिथि; एक वर्ष; गोविन्द देवता; अरण्य (वन) में १२ द्विजों, यतियों या सपत्नीक गृहस्थों को भरपेट भोजन; हे० ७० (१०९१-९४)।
अरण्यषष्ठी : ज्ये० शु० ६; राजमार्तण्ड (१३९६), ऐसा आया है कि नारियाँ हाथ में पंखे एवं तीर लेकर अरण्य' (वन) में घूमती हैं। गदाधरपद्धति (कालसार, ८३) में इसे स्कन्दषष्ठी भी कहा गया है; तिथिव्रत; विन्ध्यवासिनी एवं स्कन्द की पूजा; कृत्यरत्नाकर (१८५); वर्षक्रियाकौमुदी (२७९); कृत्यतत्त्व (४३०-४३१) । इसे करने वाले अपने बच्चों के स्वास्थ्य के लिए कमल-नाल, कन्दमूल एवं फलों का सेवन करते हैं।
अरन्धनाष्टमी : देखिए व्रतकोश (सं० ४७०)।
अरुणोदय : रात्रि का अन्तिम प्रहर। हेमाद्रि (चतुर्वर्ग चिन्तामणि, काल, २५९, २७२); कालनिर्णय (२४१, स्कन्द० एवं नारदीय० से उद्धरण) में आया है कि यह सूर्योदय के चार घटिका पूर्व होता है।
अरुन्धतीव्रत : केवल नारियों के लिए; वैधव्य से बचने एवं बच्चों के लिए; तीन रातों तक उपवास; वसन्त के आरम्भ में तीसरी तिथि ; अरुन्धती-पूजा; हे. (व्रत० २, ३१२-३१५); व्रतराज (८९-९३) ।
__ अर्क-व्रत : दोनों पक्षों में षष्ठी या सप्तमी को केवल रात में खाना ; तिथिव्रत ; एक वर्ष ; अर्क (सूर्य) की पूजा ; कृत्यकल्पतरु (व्रतकाण्ड, ३८७); हेमाद्रि (व्रत० २, ५०९)।
अर्कसप्तमी : तिथि; दो वर्ष ; सूर्य देवता; अर्क (मन्दार) के पत्तों के दोने में जल-ग्रहण; हे० (७० १, ७८८-७८९); पद्म० (५।७५।८६-१०६); पंचमी को एकमक्त, षष्ठी को नक्त एवं सप्तमी को उपवास एवं अष्टमी को पारण।
अर्कसम्पुट सप्तमी : फा० शु०७ को आरम्म ; तिथि ; एक वर्ष ; सूर्य-पूजा; भविष्य० (१।२१०।२-८१)।
अर्काष्टमी : रविवार को, शु० अष्टमी ; उमा एवं शिव (जिनकी आँख में सूर्य विश्राम करते हैं) की पूजा; हे० (७० १, ८३५-३७)।।
अर्घ्य : देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड २, पृ० ३१८, ५४३। पश्चात्कालीन निबन्धों ने इसे अधिक विस्तार दे दिया है। वर्षक्रियाकौमुदी (१४२) में आया है कि सभी देवों के अर्घ्य में चन्दन, पुष्प, यव, कुश के अग्र भाग, तिल, सरसों, दूर्वा दिये जाते हैं। देखिए हे ० (व्रत० १, ४८); कृत्यरत्नाकर (२९६); व्रतराज (१६)।
- अर्धश्रावणिक-प्रत : श्रावण शुक्ल १ को आरम्भ ; एक मास; अर्धश्रावणी नामक पार्वती की पूजा; एक मास तक एक भक्त या नक्त रहना ; अन्त में कुमारियों एवं ब्राह्मणों को खिलाना; हे. (व्रत २, ७५३-५४); व्रतप्रकाश (१०६-१०७)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org