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________________ ९७ बत-सूची वाले कुछ दुष्कर्म बन्द हो जाने चाहिए, यथा द्यूत आदि (दीवाली में) तथा गन्दी गालियाँ एवं कीचड़ फेंकना आदि (होली में)। रामनवमी, विजयादशमी, कृष्णजन्माष्टमी को ज्यों-का-त्यों मनाते जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से प्राचीन काल की महान विभूतियों की कृतियों एवं चरितों का स्मरण होता रहता है। इन उत्सवों के साथ शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, तिलक, रवीन्द्र एवं गान्धी जैसी महान विभूतियों एवं महामानवों की जयन्तियाँ भी मनायी जानी चाहिए। इसी प्रकार वट-सावित्री एवं हरितालिका जैसे व्रतों को भी, जो स्त्रियों द्वारा किये जाते हैं, मनाते जाना चाहिए तथा रक्षाबन्धन एवं भ्रातृद्वितीया जैसे व्रतों को भी प्राचीन महता मिलती रहनी चाहिए. क्योंकि उनमें स्वाभाविक उत्सर्ग भावना से प्रेरित स्नेह भाव का प्रदर्शन पाया जाता है। यह द्रष्टव्य है कि बहुत-से व्रत एक-साथ मास, तिथि एवं नक्षत्र पर निर्भर हैं, इनका विभाजन कठिनाई से किया जा सकता है। अधिकांश व्रत तिथिव्रत हैं, अतः तिथि शब्द नहीं रखा गया है। पुराणों के साथ 'पुराण' शब्द नहीं रखा गया है, यथा अग्नि, वामन आदि। पुराणों को छोड़कर अन्य मध्यकालीन ग्रन्थ कालानुसार रखे गये हैं। निम्नलिखित संकेत विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं, यथा च० (चैत्र), वै० (वैशाख), ज्ये० (ज्येष्ठ), आ० (आषाढ़), श्रा० (श्रावण), मा० (भाद्रपद), आश्वि० (आश्विन), का० (कार्तिक), मार्ग० (मार्गशीर्ष), पौ० (पौष), मा० (माघ), फा० (फाल्गुन), शु० (शुक्ल), कृ० (कृष्ण) पक्ष। व्रत-उत्सवों की सूची अक्षयाचतुर्थी : उपवास-जैसे व्रतों में मंगलवार के साथ चतुर्थी विशेष फल देती है। गदाधरपद्धति (७२)। अक्षयफलावाप्ति : वै० शु० ३; तिथि; विष्णुपूजा। हेमाद्रि, व्रतखण्ड १, ४९९। यदि इस तिथि में कृत्तिका हो तो विशिष्ट पुण्य होता है। निर्णयसिन्धु (९२-९४)। अक्षयतृतीया : वै० शु०३; मत्स्य० (६५।१-७), नारदीय० (११११२।१०)। देखिए गत अध्याय ४। अक्षयनवमी : का० शु०९; तिथि; इसी दिन विष्णु द्वारा कूष्माण्ड नामक दैत्य मारा गया था। व्रतराज ३४७। देखिए युगादि। अखण्डद्वादशी : (१) आषा० शु०११ (आरम्भ ; उस दिन उपवास) एवं द्वादशी पर विष्णुपूजा; तिथिव्रत ; एक वर्ष तक ; क्रिया-संस्कारों में जो अपूर्ण होता है, वह पूर्ण हो जाता है; कृत्यकल्पतरु (व्रतकाण्ड ३४४-३४७) एवं हेमाद्रि (व्रतखण्ड, १, ११९३-११०५; (२) मार्ग० शु० १२; यज्ञ, उपवास एवं व्रत में वैकल्य दूर करती है; हे० ७० (१,१११७-११२४), वामन० १७।११-२५; अग्नि ० (अध्याय १९०); गरुड़० (१।११८)। __अगस्त्यदर्शन-पूजन : (जब सूर्य कन्या राशि के मध्य में रहता है उस समय अगस्त्य नक्षत्र को देखना और रात्रि में पूजन करना), नीलमतपुराण (पृ० ७६-७७, श्लोक ९३४-९३९)।। अगस्त्यार्घ्यदान : अगस्त्य नक्षत्र को अर्घ्य देना। मत्स्य० (अध्याय ६१, जहाँ अगस्त्योत्पत्ति के विषय में उल्लेख है); गरुड़० (१।११९।१-६); जीमूतवाहन का कालविवेक (२९०-२९२)। विभिन्न देशों में विभिन्न कालों में अगस्त्य का उदय एवं अस्त होता है। अग्नि (२०६।१-२); राजमार्तण्ड (मोजकृत, १२०६-१२२८); कृत्यकल्पतरु का नयतकालिक काण्ड (४४८-४५१); हे० ७० (२।८९३-९०४); कृत्यरत्नाकर (२९४-२९९); वर्षक्रियाकौमुदी (३४०-३४१); राजमार्तण्ड (१२१९-२०); मत्स्य ० ६११५० ; गरुड़० ११११९।५; समयप्रदीप (सोमदत्तकृत)। अग्नि : विभिन्न कृत्यों में प्रज्वलित अग्नि के विभिन्न नाम हैं। यथा--रसोई की अग्नि पावक, गर्भाधान की अग्नि मारुत कही जाती है। देखिए तिथितत्त्व (९९, जहाँ गृह्यसंग्रह १२२-१२ का उद्धरण है)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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