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ग्रहण समय के कृत्य
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कुछ निम्न हैं-' कार्तिक के ग्रहण में गंगा-यमुना-संगम श्रेष्ठ है, मार्गशीर्ष में देविका में, पौष में नर्मदा में, माघ में सन्निहिता नदी पवित्र है' आदि आदि ।
सामान्य नियम यह है कि रात्रि में स्नान, दान एवं श्राद्ध वर्जित है । आपस्तम्ब० ( १|११|३२|८) में आया है- 'रात्रि में उसे स्नान नहीं करना चाहिए। मनु ( ३।२८० ) का कथन है - - रात्रि में स्नान नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह राक्षसी घोषित है, और दोनों सन्ध्यायों में तथा जब सूर्य अभी-अभी उदित हुआ है स्नान नहीं करना चाहिए। किन्तु ग्रहण में स्नान, दान एवं श्राद्ध अपवाद हैं । याज्ञ० ( ११२/१८) के अनुसार ग्रहण श्राद्ध काल कहा गया है ।
शातातप ( हे०, काल, पृ० ३८७; का० वि०, पृ० ५२७; स्मृतिकौ०, पृ० ७१) का कथन है कि ग्रहण के समय दानों, स्नानों, तपों एवं श्राद्धों से अक्षय फल प्राप्त होते हैं, अन्य कृत्यों में रात्रि ( ग्रहणों को छोड़कर) राक्षसी है, अतः इससे विमुख रहना चाहिए। महाभारत में आया है--'अयन एवं विषुव के दिनों में, चन्द्र-सूर्य ग्रहणों पर व्यक्ति को चाहिए कि वह सुपात्र ब्राह्मण को दक्षिणा के रथ भूमिदान दे' (का० नि०, पृ० ३५४ स्मृतिको ०, पृ० ७२ ) । याज्ञ० में ऐसा आया है कि 'केवल विद्याया तप । ही व्यक्ति सुपात्र नहीं होता, वही व्यक्ति पात्र है जिसमें ये दोनों तथा कर्म ( इन दोनों के समानुरूप) पाये जायें।' कतिपय शिलालेखों में ग्रहण के समय के भूमिदानों का उल्लेख है; प्राचीन एवं मध्य कालों में राजा एवं धनी लोग ऐसा करते थे (देखिए इण्डियन एण्टीक्वेरी, ६, पृ० ७२-७५; एपिफिया इण्डिका, ३, पृ० १-७; वही, ३, पृ० १०३ ११०; वही, ७, पृ० २०२-२०८, वही, ९, पृ० ९८-१०२; वही, १४, पृ० १५६- १६३ आदि-आदि ) । आज भी ग्रहण के समय दरिद्र लोग नगरों एवं बस्तियों में वस्त्रों एवं पैसों के लिए शोर-गुल करते दृष्टिगोचर होते हैं ।
ग्रहण के समय श्राद्ध कर्म करना दो कारणों से कठिन है । अधिकांश में ग्रहण अल्पावधि के होते हैं, दूसरे, ग्रहण के समय भोजन करना वर्जित है । ग्रहण के समय भोजन करने से प्राजापत्य प्रायश्चित्त करना पड़ता है। इसी से कुछ स्मृतियों एवं निबन्धों में ऐसा आया है कि श्राद्ध आम श्राद्ध या हेम श्राद्ध होना चाहिए । ग्रहण के समय श्राद्ध करने से बड़ा फल मिलता है, किन्तु उस समय भोजन करने पर प्रायश्चित्त करना पड़ता है और व्यक्ति अन्य लोगों की दृष्टि में गिर जाता है । मिताक्षरा (याज्ञ०१।२१७-२१८) ने उद्धृत किया है-'सूर्य या चन्द्र के ग्रहणों के समय भोजन नहीं करना चाहए।' अतः कोई पात्र ब्राह्मण आसानी से नहीं मिल सकता, और विस्तार के साथ श्राद्ध कर्म एक प्रकार से असम्भव है। तब भी शातातप आदि कहते हैं कि श्राद्ध करना आवश्यक है -- 'राहुदर्शन पर व्यक्ति को श्राद्ध करना चाहिए, यहाँ तक कि अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ; जो व्यक्ति श्राद्ध नहीं करता वह गाय के समान पंक में डूब जाता है ।' ग्रहण पर कृत्यों के क्रम यों हैं-गंगा या किसी अन्य जल में स्नान, प्राणायाम, तर्पण, गायत्री जप, अग्नि में तिल एवं व्याहृतियों तथा ग्रहों के लिए व्यवस्थित मन्त्रों के साथ होम (याज्ञ० १३०३०१), इसके उपरान्त आमश्राद्ध, सोना, गायों एवं भूमि के दान ।
आजकल अधिकांश लोग ग्रहण के समय स्नान करते हैं और कुछ दान भी करते हैं किन्तु ग्रहण - सम्बन्धी अन्य कृत्य नहीं करते। ग्रहण काल जप, दीक्षा, मन्त्र - साधना (विभिन्न देवों के निमित्त) के लिए उत्तम काल है ( देखिए, हे०, काल०, पृ० ३८९; ति० त०, प० १५६; नि० सि० पृ० ६७ ) ।
जब तक ग्रहण आँखों से दिखाई देता है तब तक की अवधि पुण्यकाल कही जाती है । जाबालि में आया है -- 'संक्रान्ति में इसके इधर-उधर १६ कलाओं तक पुण्यकाल रहता है किन्तु सूर्यचन्द्र ग्रहण में यह केवल तब तक रहता है जब तक ग्रहण दर्शन होता रहता है (दे० कृ० क०, नयत, पृ० ३६८; हे०, काल, ३८८; कृ० र०, पृ० ६२५; स्मृतिको०, पृ० ६९ ) । इस विषय में मध्यकालिक ग्रन्थों में बड़े मतमतान्तर हैं । विभेद ' यावद्दर्शनगोचर' एवं 'राहु
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