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________________ ९२ धर्मशास्त्र का इतिहास कारण नहीं है, यही सत्य स्थिति है जिसे शास्त्र घोषित करता है। इस सत्य सिद्धान्त के रहते हुए सामान्य लोग, यहाँ तक कि पढ़े-लिखे लोग (किन्तु ज्योतिःशास्त्रज्ञ नहीं) पहले विश्वास करते थे और अब भी विश्वास करते हैं कि राहु के कारण ग्रहण लगते हैं और उन्हें स्नान, दान, जप, श्राद्ध आदि का विशिष्ट अवसर मानते हैं। वराहमिहिर ने श्रुति, स्मृति, सामान्य विश्वास एवं ज्योतिष के सिद्धान्त का समाधान करने का प्रयत्न किया है और कहा है कि एक असुर था जिसे ब्रह्मा ने वरदान दिया कि ग्रहण पर दिये गये दानों एवं आहुतियों से तुमकों संतुष्टि प्राप्त होगी। वही असुर अपना अंश ग्रहण करने को उपस्थित रहता है और उसे लाक्षणिक रूप से राहु कहा जाता है। बुद्धिवाद, सामान्य परम्पराएँ एवं अन्धविश्वास एक-साथ नहीं चल सकते। सूर्य एवं चन्द्र के ग्रहणों में कुछ अन्तर उपस्थित किया गया था। व्यास की उक्ति है--'चन्द्रग्रहण (सामान्य दिन से) एक लाखगुना (फलदायक) है और सूर्यग्रहण पहले से दसगुना, यदि गंगा-जल (स्नान के लिए)पास में हो तो चन्द्रग्रहण एक करोडगुना अधिक (फलदायक) है और सूर्यग्रहण उससे दस-गुना अधिक ।' ग्रहण-दर्शन पर प्रथम कर्तव्य है स्नान करना। ऐसा आया है कि राहु देखने पर सभी वर्गों के लोग अपवित्र हो जाते हैं। उन्हें सर्वप्रथम स्नान करना चाहिए, तब अन्य कर्तव्य करने चाहिए, (ग्रहण के पूर्व) पकाये हुए भोजन का त्याग कर देना चाहिए (हे०, काल,पृ० ३९०; कालविवेक, पृ० ५३३; व० क्रि० को०, पृ० ९१)। ग्रहण के समय के विषय में विचित्र पुनीतता का उल्लेख हुआ है। यदि कोई व्यक्ति ग्रहण-काल एवं संक्रान्ति-काल में स्नान नहीं करता तो वह भावी सात जन्मों में कोढ़ी हो जायगा और दुःख का भागी होगा (स० म०, पृ० १३०)। उसे ठण्डे जल में स्नान करना चाहिए और वह भी यथासम्भव पवित्र स्थल पर। पुनीततम स्नान गंगा में या गोदावरी में या प्रयाग में होता है, इसके उपरान्त किसी भी बड़ी नदी में, यथा ६ नदियाँ जो हिमालय से निकली हैं, ६ नदियाँ जो विन्ध्य से निकली हैं, इसके उपरान्त किसी भी जल में, क्योंकि ग्रहण के समय सभी जल गंगा के समान पवित्र हो उठते हैं। गर्म जल का स्नान केवल बच्चों, बूढ़ों एवं रोगियों के लिए आज्ञापित है। ग्रहण आरम्भ होने पर स्नान, होम, देवों की पूजा, ग्रहण के समय श्राद्ध, जब ग्रहण समाप्त होने को हो तो दान तथा जब ग्रहण समाप्त हो जाय तो पुनः स्नान करना चाहिए। जनन-मरण के समय आशौच पर भी ग्रहण के समय स्नान करना चाहिए, किन्तु गौड़-लेखकों के मत से, उसे दान या श्राद्ध नहीं करना चाहिए। इस विषय में मदनरत्न तथा निर्णयसिन्धु ने विरोधी मत दिया है; उनके मत' से आशौच में स्नान, दान, श्राद्ध एवं प्रायश्चित्त करना चाहिए (नि० सि०, पृ०६६)। कुछ पुराणों एवं निबन्धों में कुछ विशिष्ट मासों के ग्रहणों के फलों तथा कुछ विशिष्ट नदियों या पूत स्थलों में स्नान के फलों में अन्तर प्रतिपादित हुए हैं। कालनिर्णय (पृ० ३५०) ने चन्द्रग्रहण पर गोदावरी में एवं सूर्यग्रहण पर नर्मदा में स्नान की व्यवस्था दी है। कृत्यकल्पतरु (नयतकाल), हेमाद्रि (काल) एवं कालविवेक ने देवीपुराण की उक्तियाँ दी हैं, जिनमें ५. व्यासः। इन्दोर्लक्षगुणं प्रोक्तं रवेर्दशगुणं स्मृतम्। गंगातोये तु सम्प्राप्ते इन्दोः कोटी रवेर्दश ॥ हे. (काल, पृ० ३८४), का० वि० (पृ० ५२१) एवं नि० सि० (पृ० ६४)। ६. सर्व गंगासमंतोयं सर्वे व्याससमा द्विजाः। सर्व मेरुसमं दानं ग्रहणे सूर्यचन्द्रयोः॥ भुजबल (पृ० ३४८); व० क्रि० कौ० (पृ० १११); का० नि० (पृ० ३४८); स० म० (पृ० १३०)। गोदावरी भीमरथी तुंगभद्रा च वेणिका। तापी पयोष्णी विन्ध्यस्य दक्षिणे तु प्रकीर्तिताः॥ भागीरथी नर्मदा च यमुना च सरस्वती। विशोका च वितस्ता च हिमवत्पर्वताश्रिताः॥ एता नद्यः पुण्यतमा देवतीर्थान्युदाहृताः। ब्रह्मपुराण (७०।३३-३५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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