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होली पर्व का विकास, वसन्तोत्सव, ग्रहण
क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन (रंग - पंचमी) मनायी जाती है । कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही 'पहुनई' में आये हुए लोगों पर रंग बिखेर दिया जाता है; किन्तु मूल रूप में यह वसन्तोत्सव ही है । कहीं-कहीं होली के एक दिन उपरान्त लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़ ) मी फेंकते हैं। कहीं-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं । कहीं-कहीं लोग भद्दे मजाकों, अश्लील गानों से अपनी कामेच्छाओं की बाह्य तृप्ति करते हैं । वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्ट जनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें। श्री गुप्ते ने अपने लेख 'हिन्दू हॉलीडेज एवं सेरीमनीज़' ( पृ० ९२ ) में प्रकट किया है कि यह उत्सव ईजिप्ट (मिस्र) या ग्रीस (यूनान) से लिया गया है । किन्तु यह भ्रामक दृष्टिकोण है । लगता है, उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है, दूसरे, वे इस वियष में भी निश्चित नहीं हैं कि इस उत्सव का उद्गम मिस्र से है या यूनान से। उनकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए ।
ग्रहण
अति प्राचीन कालों से सूर्य-चन्द्र-ग्रहणों को महत्त्व दिया जाता रहा है। ग्रहण के सम्बन्ध में विशाल साहित्य का निर्माण हो चुका है। देखिए हेमाद्रि ( काल, पृ० ३७९ - ३९४), कालविवेक ( पृ० ५२१-५४३), कृत्यरत्नाकर ( पृ० ६२५- ६३१), कालनिर्णय ( पृ० ३४६-३५८), वर्ष क्रियाकौमुदी ( पृ० ९० - ११७ ), तिथितत्त्व ( पृ० १५० १६२), कृत्यतत्त्व (पृ० ४३२-४३४), निर्णयसिन्धु ( पृ० ६१-७६), स्मृतिकौस्तुभ ( पृ० ६९-८० ), धर्मसिन्धु ( पृ० ३२-३५ ), गदाधरपद्धति (कालासार, पृ० ५८८-५९९ ) । पूर्ण सूर्य ग्रहण का संकेत ऋग्वेद (५।४०।५-६, ८) में भी है। शांखायन ब्राह्मण (२४।३ ) में आया है कि अत्रि ने विषुवत् (विषुव ) के तीन दिन पूर्व सप्तदश स्तोम कृत्य किया और उसके द्वारा उस स्वर्भानु को पछाड़ा जिसने सूर्य को अंधकार से भेद दिया था, अर्थात् सूर्यग्रहण ( ऋ० ५/४०१५) शरद विषुव के तीन दिन पूर्व हुआ था ।
बृहत्संहिता से प्रकट होता है कि ग्रहण का वास्तविक कारण भारतीय ज्योतिष शास्त्रज्ञों को वराहमिहिर ( ईसा की छठी शताब्दी का पूर्वार्ध) के कई शताब्दियों पूर्व से ज्ञात था । वराहमिहिर ने लिखा है - चन्द्रग्रहण में चन्द्र पृथिवी की छाया में आ जाता है तथा सूर्यग्रहण में चन्द्र सूर्य में प्रविष्ट हो जाता है ( अर्थात् सूर्य एवं पृथिवी के बीच में चन्द्र आ जाता है), ग्रहणों के इस कारण को पहले के आचार्य अपनी दिव्य दृष्टि से जानते थे; राहु ग्रहणों का
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३. वर्ष कृत्यवीपक ( पृ० ३०१ ) में निम्न श्लोक आये हैं--' प्रभाते विमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत् । सर्वांगे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत् ॥ सिन्दूरैः कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत् । गीतं वाद्यं च नृत्यं च कुर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥ ब्राह्मणैः क्षत्रियैवैश्यैः शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभिः । एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा । बालकैः सह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥'
इत्युपरागकारणमुक्तमिदं दिव्यवग्भिराचार्यैः ।
४. भूछायां स्वग्रहणे भास्करमर्कग्रहे प्रविशतीन्दुः । राहुरकारणमस्मिन्नियुक्तः शास्त्र सद्भावः ॥ बृहत्सं० (५/८ एवं १३) ।
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