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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास एक कथा दी है । युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है। कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी बच्चों को दिन-रात डराया करती है। राजा द्वारा पूछने पर उनके पुरोहित ने बताया कि वह मालिन की पुत्री एक राक्षसी है जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वहु अस्त्र-शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीडायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़े, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में मद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन अडाडा या होलिका कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। कामप्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन - लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है--' जब शुक्ल पक्ष की १५वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रातः आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन- लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है ।' ९० आनन्दोल्लास से परिपूर्ण एवं अश्लील गान - नृत्यों में लीन लोग जब अन्य प्रान्तों में होलिका का उत्सव मनाते हैं तब बंगाल में दोलयात्रा का उत्सव होता है। देखिए शूलपाणिकृत 'दोलयात्राविवेक ।' यह उत्सव पाँच या तीन दिनों तक चलता है । पूर्णिमा के पूर्व चतुर्दशी को संध्या के समय मण्डप के पूर्व में अग्नि के सम्मान में एक उत्सव होता है । गोविन्द की प्रतिमा का निर्माण होता है। एक वेदिका पर १६ खम्भों से युक्त मण्डप में प्रतिमा रखी जाती है । इसे पंचामृत से नहलाया जाता है, कई प्रकार के कृत्य किये जाते हैं, मूर्ति या प्रतिमा को इधर-उधर सात बार डोलाया जाता है । प्रथम दिन की प्रज्वलित अग्नि उत्सव के अन्त तक रखी जाती है । अन्त में प्रतिमा २१ बार डोलाई या झुलाई जाती है । ऐसा आया है कि इन्द्रद्युम्न राजा ने वृन्दावन में इस झूले का उत्सव आरम्भ किया था । इस उत्सव के करने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। शूलपाणि ने इसकी तिथि, प्रहर, नक्षत्र आदि के विषय में विवेचन कर निष्कर्ष निकाला है कि दोलयात्रा पूर्णिमा तिथि की उपस्थिति में ही होनी चाहिए, चाहे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो या न हो । होलिकोत्सव के विषय में नि० सि० ( पृ० २२७ ), स्मृतिकौस्तुभ ( पृ० ५१६-५१९), पु० चि० ( पृ० ३०८-३१९) आदि निबन्धों में वर्णन आया है, किन्तु हम स्थान-संकोच से अधिक नहीं लिख सकेंगे । जैन एवं गृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलका का उत्सव प्रचलित था । कामसूत्र एवं भविष्योत्तरपुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, अतः यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था । अतः होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है। और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्तीभरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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