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________________ अध्याय १२ होलिका एवं ग्रहण होलिका-होली या होलिका आनन्द एवं उल्लास का ऐसा उत्सव है जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। बंगाल को छोड़कर होलिका-दहन सर्वत्र देखा जाता है। बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर कृष्ण-प्रतिमा का झूला प्रचलित है किन्तु यह भारत के अधिकांश स्थानों में नहीं दिखाई पड़ता। इस उत्सव की अवधि विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न है। इस अवसर पर लोग बाँस या धातु की पिचकारी से रंगीन जल छोड़ते हैं या अबीर-गुलाल लगाते हैं। कहीं-कहीं अश्लील गाने गाये जाते हैं। इसमें जो धार्मिक तत्त्व है वह है बंगाल में कृष्ण-पूजा करना तथा कुछ प्रदेशों में पुरोहित द्वारा होलिका की पूजा करवाना। लोग होलिकादहन के समय परिक्रमा करते हैं, अग्नि में नारियल फेंकते हैं, गेहूँ, जौ आदि के डंठल फेंकते हैं और इनके अधजले अंश का प्रसाद बनाते हैं। कहीं-कहीं लोग हथेली से मुख-स्वर उत्पन्न करते हैं। विभिन्न प्रान्तों की विभिन्न विधियों का वर्णन करना कोई आवश्यक नहीं है। यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था (जैमिनि, १।३।१५-१६)। भारत के पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित' था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि होलाका सभी आर्यों द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य (७३ १) में एक सूत्र है 'राका होलाके', जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने यों की है--'होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका (पूर्णचन्द्र) देवता है।" अन्य टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अन्य' रूपों में की है। होलाका उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र (१।४।४२) में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग शृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि (काल,पृ० १०६) ने बृहद्यम का एक श्लोक उद्धृत किया है जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी (आलकज की माँति) कहा गया है। लिंगपुराण में आया है-'फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है।' वराहपुराण में आया है कि यह पटवास-विलासिनी' (चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली) है। हेमाद्रि (व्रत, भाग २, पृ० १८४-१९०) ने भविष्योत्तर० (१३२।११५१) से उद्धरण १. राका होलाके । काठकगृह्म (७३।१)। इस पर देवपाल की टीका यों है : 'होला कर्मविशेषः सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होलाके राका देवता। यास्ते राके सुमतय इत्यादि। २. लिंगपुराणे। फाल्गुने पौर्णमासी च सदा बालविकासिनी। ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकविभूतये ॥ वाराहपुराणे। फाल्गुने पौणिमास्यां तु पटवासविलासिनी। ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये ॥ हे० (काल, पृ० ६४२)। इसमें प्रथम का० वि० (पृ० ३५२) में भी आया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-बालवज्जनविलासिन्यामित्यर्थः। १२ Jain Education International For For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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