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धर्मशास्त्र का इतिहास
दर्शने' शब्दों को लेकर है। " कृत्यकल्पतरु का तर्क है कि 'दर्शन' शब्द कतिपय कृत्यों (यथा स्नान, दान आदि ) के कारण एवं अवसर को बताता है, ग्रहण तो तभी अवसर है जब यह जाना जा सके कि वह घटित हुआ है और यह ज्ञान आँख से प्राप्त होता है तथा जब सूर्य या चन्द्र बादलों में छिपा हो तो व्यक्ति ग्रहण के समय के प्रतिपादित कर्म नहीं भी कर सकता है। हेमाद्रि ने इसका उद्धरण देकर इसकी आलोचना की है। वे मनु के इस कथन पर विश्वास करते हैं कि (मनु० ४।३७ ) व्यक्ति को उदित होते हुए, अस्त होते हुए या जब उसका ग्रहण हो या जल में प्रतिबिम्बित हो या जब सूर्य मध्याह्न में हो तो उसको नहीं देखना चाहिए। ऐसी स्थिति में मनु के मत से वास्तविक ग्रहण-दर्शन असम्भव है और तब तो व्यक्ति स्नान नहीं कर सकता। हेमाद्रि का कथन है कि शिष्ट लोग स्नान आदि करते हैं, भले ही वे ग्रहण को वास्तविक रूप में न देख सकें। अतः उनके मत से पुण्यकाल तब तक रहता है जब तक (ज्योतिष) शास्त्र द्वारा वह समाप्त न समझा जाय । कृ० र० ( पृ० ५२६ ) का कथन है कि जब तक उपराग ( ग्रहण ) दर्शन योग्य रहता है तब तक स्नानादि क्रिया होती रहती है। कुछ लोगों ने तो ऐसा तर्क किया है कि केवल ग्रहण - मात्र ( दर्शन नहीं) ऐसा अवसर है जब कि स्नान, दान आदि कृत्य किये जाने चाहिए, किन्तु कालविवेक ( पृ० ५२९ ) ने उत्तर दिया है कि यदि ग्रहण- मात्र ही स्नानादि का अवसर है तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जायगी कि यदि चन्द्र का ग्रहण किसी अन्य द्वीप में हो तो व्यक्ति को दिन में ही सूर्यग्रहण के समान अपने देश में स्नानादि करने होंगे। स्मृतिकौस्तुभ ( पृ० ७०) एवं समयप्रकाश ( पृ० १२६ ) ने इसीलिए कहा है कि 'दर्शनगोचर' का तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति ज्योतिःशास्त्र से जानता है कि किसी देश में ग्रहण आँखों से देखा जा सकता है तो उसे उस काल में स्नानादि कृत्य करने चाहिए (भले ही वह उसे न देख सके ) । संवत्सरप्रदीप ने स्पष्ट लिखा है- 'वही ग्रहण है जो देखा जा सके, व्यक्ति को ऐसे ग्रहण पर धार्मिक कृत्य करने चाहिए, केवल गणना पर ही आश्रित नहीं रहना चाहिए।' यदि सूर्यग्रहण रविवार को एवं चन्द्रग्रहण सोमवार को हो तो ऐसा सम्मिलन 'चूड़ामणि' कहलाता है और ऐसा प्रतिपादित है कि चूड़ामणि ग्रहण अन्य ग्रहणों की अपेक्षा एक कोटि अधिक फलदायक होता है (का० वि०, पृ० ५२३; का० नि०, पृ० ३५१; ति० त०, पृ० १५४; स्मृतिकौ०, ७०, व्यास से उद्धृत ) ।
कुछ लोगों ने ऐसा प्रतिपादित किया है कि ग्रहण के एक दिन पूर्व उपवास करना चाहिए, किन्तु हेमाद्रि ने कहा है कि उपवास ग्रहण-दिन पर ही होना चाहिए। किन्तु पुत्रवान् गृहस्थ को उपवास नहीं करना चाहिए ( हे० व्रत, भाग २, पृ० ९१७) ।
बहुत प्राचीन कालों से ग्रहण के पूर्व उसके समय तथा उपरान्त भोजन करने के विषय में विस्तार के साथ नियम बने हैं। विष्णुधर्मसूत्र में व्यवस्था है - चन्द्र या सूर्य के ग्रहण काल में भोजन नहीं करना चाहिए; जब
७. शातातपः । स्नानं दानं तपः श्राद्धमनन्तं राहुदर्शने । आसुरी रात्रिरन्यत्र तस्मात्तां परिवर्जयेत् ॥ ( हे०, काल, पृ० ३८७; का० वि०, पृ० ५२७; स्मृतिकौ०, पृ० ७१) । संक्रान्तौ पुण्यकालस्तु षोडशोभयतः कलाः । चन्द्रसूर्योपरागे तु यावद्दर्शनगोचरः ॥ जाबालि (कृ० क०, नैयत०, पृ० ३६८; हे०, काल, पृ० ३८८; कृ०, २०, पृ० ६२५; स्मृतिको ०, पृ० ६९ ) ।
८. चन्द्रार्कोपरागे नाश्नीयादविमुक्तयोरस्तंगतयो दृष्ट्वा स्नात्वा परेऽहनि । विष्णुधर्मसूत्र ( ६८। १-३ ) ; हे०, काल, पृ० ३९६; का० वि०, पृ० ५३७; कृ० र०, पृ० ६२६; व० क्रि० कौ०, पृ० १०२; नाद्यात्सूर्यग्रहात्पूर्वमह्नि सायं शशिग्रहात् । ग्रहकाले च नाश्नीयात्स्नात्वाश्नीयाच्च विमुक्तयोः ॥ मुक्ते शशिनि भुंजीत यदि स्यान्न महानिशा । स्नात्वा वृष्ट्वापरेऽह्वयद्याद् ग्रस्तास्तमितयोस्तयोः ॥ उद्धृत - - कृत्यकल्पतरु ( नैयत०, पृ० ३०९-३१० ) ; काल
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