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________________ शिवरात्रि व्रत का विधान जब चतुर्दशी दोनों दिनों तक प्रदोषव्यापिनी हो या दोनों दिनों तक उससे निर्मुक्त हो तो निशीथ में रहने वाली ही नियामक होती है; किन्तु यदि वह दो दिनों तक रहकर केवल किसी से प्रत्येक दिन (प्रदोष या निशीथ ) व्याप्त हो तो जया से संयुक्त अर्थात् त्रयोदशी तिथि नियामक होती है। " प्राचीन कालों में शिवरात्रि के सम्पादन का विवरण गरुडपुराण (१।१२४।११-१३ ) में मिलता है - त्रयोदशी को शिव-सम्मान करके व्रती को कुछ प्रतिबन्ध मानने चाहिए। उसे घोषित करना चाहिए- 'हे देव, मैं चतुर्दशी की रात्रि में जागरण करूंगा। मैं यथाशक्ति दान, तप एवं होम करूँगा । हे शम्भु, मैं चतुर्दशी को भोजन नहीं करूँगा, केवल दूसरे दिन खाऊँगा । हे शम्भु, आनन्द एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए आप मेरे आश्रय बनें ।' व्रती को व्रत करके 'गुरु के पास पहुँचना चाहिए और पंचामृत के साथ पंचगव्य से लिंग को स्नान कराना चाहिए। उसे इस मन्त्र का पाठ करना चाहिए 'ओम् नमः शिवाय ।' चन्दन - लेप से आरम्भ कर सभी उपचारों के साथ शिव पूजा करनी चाहिए और अग्नि में तिल, चावल एवं घृतयुक्त भात डालना चाहिए। इस होम के उपरान्त पूर्णाहुति (पूर्ण फल के साथ आहुति) करनी चाहिए और (शिव-विषयक) सुन्दर कथाएँ एवं गान सुनने चाहिए। व्रती को पुनः अर्धरात्रि, रात्रि के तीसरे प्रहर एवं चौथे प्रहर में आहुतियां डालनी चाहिए। सूर्योदय के लगभग उसे 'ओम् नमः शिवाय' का मौन पाट करते हुए शिव-प्रार्थना करनी चाहिए -- 'हे देव, आपके अनुग्रह से मैंने निर्विघ्न पूजा की है, हे लोकेश्वर, हे शिव, मुझे क्षमा करें। इस दिन जो मी पुण्य मैंने प्राप्त किया और मेरे द्वारा शिव को जो कुछ भी प्रदत्त हुआ है, आज मैंने आपकी कृपा से ही यह व्रत पूर्ण किया है; हे दयाशील, मुझ पर प्रसन्न हों, और अपने निवास को जायँ ; इसमें कोई सन्देह नहीं कि केवल आपके दर्शन मात्र से मैं पवित्र हो चुका हूँ ।' व्रती को चाहिए कि वह शिवभक्तों को भोजन दे, उन्हें वस्त्र, छत्र आदि दे - 'हे देवाधिदेव, सर्वपदार्थाधिपति, आप लोगों पर अनुग्रह करते हैं. मैंने जो कुछ श्रद्धा से दिया है उससे आप प्रसन्न हों।' इस प्रकार क्षमा माँग लेने पर व्रती को संकल्प करके १२ वर्ष तक इसे करना चाहिए। यश, धन, पुत्र, राज्य को प्राप्त करके वह शिवपुरी को जा सकता है । व्रती को वर्ष के १२ मासों की चतुर्दशी को जागरण करना चाहिए । व्यक्ति यह व्रत करके, १२ ब्राह्मणों को खिलाकर तथा दीपदान करके स्वर्ग प्राप्त कर सकता है। ८७ तिथितत्त्व में कुछ मनोरंजक विस्तार पाया जाता है ( पृ० १२७) । लिंग-स्नान रात्रि के प्रथम प्रहर में दूध से, दूसरे में दही से, तीसरे में घृत से और चौथे में मधु से कराना चाहिए। चारों प्रहरों के मन्त्र ये हैं- 'ह्रीं ईशानाय नम:, 'ह्रीं अघोराय नमः', 'ह्रीं वामदेवाय नमः' एवं 'ह्रीं सद्योजाताय नमः ।' चारों प्रहरों में अर्घ्य के समय के मन्त्र भी विभिन्न हैं । ऐसा भी प्रतिपादित है कि प्रथम प्रहर में गान एवं नृत्य होने चाहिए। वर्ष क्रियाकौमुदी ( पृ० ५१३) में आया है कि दूसरे, तीसरे एवं चौथे प्रहर में व्रती को पूजा, अर्घ्य, जप एवं (शिव - सम्बन्धी ) कथा श्रवण करना चाहिए, स्तोत्रपाठ करना चाहिए एवं लेटकर प्रणाम करना चाहिए; प्रातःकाल व्रती को अर्घ्यजल के साथ क्षमा माँगनी चाहिए। यदि माघ कृष्ण चतुर्दशी रविवार या मंगलवार को पड़े तो वह व्रत के लिए उत्तम होती है (स्कन्द०, पु० चि०, पृ० २५२-२५३; का० नि०, पृ० २९९; स० म०, पृ० १०४ ) । पश्चात्कालीन निबन्धों में, यथा तिथितत्त्व ( पृ० १२६), कालतत्त्वविवेक ( पृ० १९७ - २०३ ), पुरुषार्थचिन्तामणि ( पृ० २५५-२५८ ), धर्म १०. दिनद्वये निशीथव्याप्तौ तदव्याप्तौ च प्रदोषव्याप्तिनियामिका । तथा दिनद्वयेपि प्रदोषव्याप्तौ तदव्याप्तौ च निशीथव्याप्तिनियामिका । एकैकस्मिन् दिने एकैकव्याप्तौ जयायोगो नियामकः । का० नि० ( पु० २९७ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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