SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास शिवरात्रि नित्य एवं काम्य दोनों है । यह नित्य इसलिए है कि इसके विषय में वचन है कि यदि मनुष्य इसे नहीं करता तो पापी होता है, 'वह व्यक्ति जो तीनों लोकों के स्वामी रुद्र की पूजा भक्ति से नहीं करता वह सहस्र जन्मों में भ्रमित रहता है।' ऐसे भी वचन हैं कि यह व्रत प्रति वर्ष किया जाना चाहिए -- 'हे महादेवी, पुरुष या पतिव्रता नारी को प्रति वर्ष शिवरात्रि पर भक्ति के साथ महादेव की पूजा करनी चाहिए ।" यह व्रत काम्य भी है, क्योंकि इसके करने से फल भी मिलते हैं । ८६ To ईशानसंहिता (का० नि०, पृ० २९० नि० सि० पृ० २२५; स० म०, पृ० १०१; कृत्यतत्त्व, पृ० ४६१ ) के मत से यह व्रत सभी प्रकार के मनुष्यों द्वारा सम्पादित हो सकता है - 'सभी मनुष्यों को, यहाँ तक कि चाण्डालों hi भी शिवरात्रि पापमुक्त करती है, आनन्द देती है और मुक्ति देती है ।' ईशानसंहिता में व्यवस्था है--यदि विष्णु या शिव या किसी देव का भक्त शिवरात्रि का त्याग करता है तो वह अपनी पूजा ( अपने आराध्यदेव की पूजा ) के फलों को नष्ट कर देता है। जो इस व्रत को करता है उसे कुछ नियम मानने पड़ते हैं, यथा अहिंसा, सत्य, अक्रोध, ब्रह्मचर्य, दया, क्षमा ( का पालन करना होता है), उसे शान्त मन क्रोधहीन, तपस्वी, मत्सरहीन होना चाहिए; इस व्रत का ज्ञान उसा को दिया जाना चाहिए जो गुरुपादानुरागी हो, यदि इसके अतिरिक्त किसी अन्य को यह दिया जाता है तो ( ज्ञानदाता ) नरक में पड़ता है । इस व्रत का उचित काल है रात्रि, क्योंकि रात्रि में भूत शक्तियाँ शिव (जो त्रिशूलवारी हैं) घूमा करते हैं। अत: चतुर्दशी को उनकी पूजा होनी चाहिए (हे० काल, पृ० ३०४; का० नि०, पृ० २९८ ) । स्कन्द ० ( १|१|३३|८२ ) में आया है कि कृष्ण पक्ष की उस चतुर्दशी को उपवास करना चाहिए, वह तिथि सर्वोत्तम है। और शिव से सायुज्य उत्पन्न करती है। और देखिए हे० (काल, पृ० ३०४) । शिवरात्रि के लिए वही तिथि मान्य है जो उस काल से आच्छादित रहती है । उसी दिन व्रत करना चाहिए जब कि चतुर्दशी अर्धरात्रि के पूर्व एवं उपरान्त भी रहे (ईशानसंहिता, ति० त०, पृ० १२५; नि० सि० पू० ३२२ ) । हेमाद्रि में आया है कि शिवरात्रि नाम वाली वह चतुर्दशी जो प्रदोष कल में रहती है, व्रत के लिए मान्य होनी चाहिए; उस तिथि पर उपवास करना चाहिए, क्योंकि रात्रि में जागरण करना होता है ( काल, पृ० ३०७ ) । व्रत के लिए उचित दिन एवं काल के विषय में पर्याप्त विभेद है। देखिए हेमाद्रि ( काल, पृ० २९८ - ३०८ ), का०नि० ( पृ० २९७), ति० त० ( पृ० १२५-१२६), नि० सि० ( पृ० २२२ - २२४), पु० चि० ( १०२४८-२५३ ) आदि । निर्णयामृत (देखिए नि० सि०, पृ० २३३ में उद्धृत) ने 'प्रदोष' शब्द पर बल दिया है, तथा अन्य ग्रन्थो में 'निशीथ' एवं अर्धरात्रि पर बल दिया है। यहाँ हम निर्णयकारों के शिरोमणि माधव के निर्णय प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि चतुर्दशी प्रदोष-निशीथ व्यापिनी हो तो व्रत उसी दिन करना चाहिए। यदि वह दो दिनों वाली हो ( अर्थात् वह त्रयोदशी एवं अमावास्या दोनों से व्याप्त हो) और वह दोनों दिन निशीथ काल तक रहने वाली हो या दोनों दिनों तक इस प्रकार न उपस्थित रहने वाली हो तो प्रदोष व्याप्त नियामक ( निश्चय करने वाली ) होती है ; ९. प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिचतुर्दशी । रात्रौ जागरणं यस्मात् तस्यात्तां समुपोषयेत् ॥ हे० (काल, पृ० ३०७) | देखिए व० क्रि० कौ० ( पृ०७४), जहाँ इस श्लोक का अर्थ दिया हुआ है (स्कन्दपुराण के मत से सूर्यास्त के उपरान्त दो मुहूर्ती (६ घटिकाओं ) तक प्रदोष होता है; किन्तु विश्वादर्श के अनुसार सूर्यास्त के उपरान्त तीन घटिकाओं तक प्रदोष होता है) । निर्णयामृते सर्वापि शिवरात्रिः प्रदोषव्यापिन्येव, अर्धरात्रवाक्यानि कैमुतिकन्यायेन प्रदोषस्तावकानीत्युक्तम् (नि० सि०, पृ० २३३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy