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________________ प्रायश्चित्तों (व्रतों) का परिचय १०९१ जाय, तीन दिनों तक केवल रात्रि में खाया जाय और आगे तीन दिनों तक केवल दिन में खाया जाय, तो उसे 'प्रातिलोम्येन' कहा जायगा। इसमें वैदिक मन्त्रों का पाठ हो सकता है या नहीं हो सकता ( स्त्रियों एवं शूद्रों के विषय में ) । फलकुच्छ - इसमें केवल फलों पर ही एक मास रहा जाता है। श्रीकृच्छ्र मी फलकृच्छ्र ही है। फलों में केवल बिल्व (बेल), आमलक ( आमला ) एवं पद्माक्ष ( तालमखाना ) ही खाये जाते हैं । " बालकृच्छ्र - देखिए शिशुकृच्छ्र । बृहद्-यावक — प्रायश्चित्तप्रकाश द्वारा उद्धृत ब्रह्मपुराण में आया है - व्यक्ति को घृत में मिश्रित जौ पर्याप्त मात्रा में गायों को खाने के लिए देने चाहिए। इसके उपरान्त गायों के गोबर को पानी में घोलकर पेट से निकले हुए जो पृथक कर लेने चाहिए। इस प्रकार से प्राप्त जी को धूप में सुखाकर स्वच्छ पत्थर पर पीस डालना चाहिए और उनमें घी एवं तिल मिलाकर, गोमूत्र में सानकर एक वेदिका पर लायी हुई अग्नि पर पका लेना चाहिए। इस प्रकार पकाये हुए जो किसी सोने के पात्र या पलाश के दोने में रखकर देवों एवं पितरों को अर्पित कर खाने चाहिए । इस प्रकार यह कृत्य १२, २४ या ३६ वर्षों तक पापों को काटने के लिए करना चाहिए। यह प्रायश्चित्त अपने गुरु, भाई, मित्र या निकट संबंधी आदि की हत्या पर किया जाता है। ब्रह्मकूचं - मिता० ( याज्ञ० ३।३१४ ) का कथन है कि जब व्यक्ति एक दिन उपवास करके दूसरे दिन पंचगव्य के पदार्थों को वैदिक मन्त्रों के साथ मिलाता है और मन्त्रों के साथ ही उन्हें ग्रहण करता है तो यह ब्रह्मकूर्च कहलाता है | शंख के मत से गायत्री (ऋ० ३।६२।१० ) के साथ गोमूत्र, 'गंघद्वाराम्' ( तै० आ० १०1१ ) के साथ गोबर, 'आप्यायस्व' (ऋ० १।९१।१६ ) के साथ दुग्ध, 'दधिक्रा णों' (ऋ० ४१३९/६ ) के साथ दघि, 'तेजोसि' ( वा० सं० २२1१) के साथ घृत एवं 'देवस्य त्वा' ( वा० सं० २२|१; ऐत० ब्रा० ३६ । ३ आदि) के साथ कुशोदक मिलाये जाते हैं। जाबाल का कथन है कि जब व्यक्ति एक दिन एवं रात, विशेषतः पूर्णिमा को पूर्ण उपवास करता है और दूसरे दिन प्रातः पंचगव्य पीता है तो यह कृत्य ब्रह्मकूर्च कहलाता है। पराशर (११।२७-२८) का मत है कि पंचगव्य एवं ब्रह्मकूर्च एक ही है । मदनपारिजात ( पृ० ७२९) एवं प्रायश्चित्तसार ( पृ० १८९ ) का कथन है कि याज्ञ० ( ३।३१४) द्वारा ति सान्तपन ब्रह्मकूर्च ही कहलाता है । " २१. यथाह मार्कण्डेयः । फलैर्मासेन कथितः फलकृच्छो मनीषिभिः । श्रीकृच्छ्रः श्रीफलः प्रोक्तः पद्माक्षरपरस्तथा ॥ मासेनामलकैरेवं श्रीकृच्छ्रमपरं स्मृतम् । पत्रैर्मतः पत्रकृच्छ्रः पुष्पैस्तत्कृच्छ्र उच्यते । मूलकृच्छ्रः स्मृतो मूलस्तोकृच्छो जलेन तु ॥ मिता० ( याज्ञ० ३ | ३१६; मद० पा० पू० ७३४) । मदनपारिजात के अनुसार 'क्वथित' के स्थान पर 'कथित' पढ़ना चाहिए। मदनपारिजात का कथन है--' शरीरयात्रामात्रप्रयुक्तफलानि मासं भक्षयेत्' । तत्र सर्वव्रतसाधारणे तिकर्तव्यतापि कर्तव्या । तानि च फलानि कानीत्याकांक्षामामाह श्रीकृच्छ्रः ।' २२. यदा पुनः पूर्वेद्युरुपोष्यापरेद्युः समन्त्रकं संयुज्य समन्त्रकमेव पञ्चगव्यं पीयते तवा ब्रह्मकूर्च इत्याख्यायते । मिता० ( याज्ञ० ३।३१४) । देखिए लघुशातातप ( १५६- १६६), जहाँ ब्रह्मकूर्च को उन सभी पापों के लिए व्यवस्थित किया गया है जहाँ कोई विशिष्ट प्रायश्चित्त न कहा गया हो। अहोरात्रोषितो भूत्वा पौर्णमास्यां विशेषतः । पञ्चगव्यं पिबेत् प्रातर्ब्रह्मकूर्चविधिः स्मृतः ॥ जाबाल (प्राय० वि०, पृ० ५१५, प्राय० प्रकाश एवं प्रथि० म० पू० २२ ) । ततश्च योगीश्वराभिहितं सान्तपनमेव ब्रह्मकूचं इत्युच्यते । स एव ब्रह्मकूचपवास इति । प्रा० सार (१० १८९ ) ; और देखिए मद० पा० (पु० ७२९) यहाँ निम्न वचन की ओर संकेत है--' यत्त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मानवे । ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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