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________________ १०९० धर्मशास्त्र का इतिहास भत्यता करने से, सोने की चोरी से, व्रतोल्लंघन से अयोग्य लोगों के यहाँ पौरोहित्य करने से तथा ब्राह्मणों के विरुद्ध बोलने से जो पाप उदित हो गया हो, उससे उसका छुटकारा हो जाय। बौधायन ने पुनः आगे कहा है-जब जौ उबल रहे हों तो उनकी रक्षा करनी चाहिए और यह "हे भूताधिपति रुद्र लोगो, आपको नमस्कार है, आकाश प्रसन्न है" कहना चाहिए । पापी को तै० सं० (१|२| १४|१) का 'कृणुष्व', तै० सं० ( १२८|७|११ ) के पाँच वाक्य 'ये देवा', ऋग्वेद (१।११४।८ एवं तै० सं० ३।४।२।२ ) के दो वचन 'मा नस्तोके', ऋग्वेद (९।९।६।६ ) एवं तै० सं० ( ३।४।११।२) के 'ब्रह्मा देवानाम्' मन्त्रों का पाठ करना चाहिए। इसके उपरान्त पापी को उबले हुए भोजन को दूसरे पात्र में डालकर और आचमन करके थोड़ा खाना चाहिए और उसे 'ये देवा' ( तै० सं० १।२।३।१) मन्त्र के साथ आत्म-यज्ञ के रूप में लेना चाहिए। बौधायन का कथन है कि जो लोग ज्ञानार्जन करना चाहते हैं उन्हें इस कृत्य को तीन दिनों एवं रातों तक करना चाहिए। जो पापी इसे छः दिन करता है वह पवित्र हो जाता है, जो सात दिन करता है वह महापातकों से मुक्त हो जाता है, जो ग्यारह दिन करता है वह अपने पूर्वजों के पाप भी काट देता है। किन्तु जो व्यक्ति इस ( प्रसृतियावक) को २१ दिनों तक करता है और इसमें गाय के गोबर से प्राप्त जौ का प्रयोग करता है वह गणों, गणपति, सरस्वती (विद्या) एवं विद्याधिपति के दर्शन करता है।" प्राजापत्य --- देखिए ऊपर कृच्छ्र जहाँ यह बताया गया है कि जब कुच्छू का कोई विशेषण न हो तो उसे प्राजापत्य समझना चाहिए। मनु ( ११।२११ ), याज्ञ० ( ३।३१९), विष्णु ( ४७।१०), अत्रि ( ११९-१२०), शंख (१८१३), बीघा० घ० मु० (४/५/६ ) ने प्राजापत्य का उल्लेख किया है एवं इसकी परिभाषा दी है। इस प्राजापत्य कई प्रकार हैं । प्रथम का वर्णन मनु (११।२११) ने किया है— तीन-तीन दिनों की चार अवधियाँ होती हैं, जिनमे क्रम से केवल दिन में एक बार पुनः केवल रात्रि में एक बार पुनः तीन दिनों तक बिना माँगे खाना एवं फिर पूर्ण उपवास किया जाता है । अर्थात् प्रथम तीन दिनों में केवल एक बार दिन में दूसरे तीन दिनों में केवल रात्रि में, तीसरे तीन दिनों में बिना मांगे और चौथे तीन दिनों में पूर्ण उपवास। दूसरे प्रकार का वर्णन वसिष्ठ ( २३।४३ ) ने किया है— पहले दिन केवल दिन में दूसरे दिन केवल रात में, तीसरे दिन केवल बिना माँगे खाया जाता है और चौथे दिन पूर्ण उपवास होता है, यही क्रिया पुनः चार-चार दिनों की दो अवधियों में की जाती है। पहले प्राजापत्य प्रकार को 'स्थानविवृद्धि' एवं दूसरे को 'दण्डकलित' कहा गया है। इन दोनों को 'आनुलोम्येन' ( उचित एवं सीधे क्रम से से बने ) कहा गया है। यदि उपर्युक्त क्रम उलट दिया जाय, यथा- प्रथम तीन दिनों तक पूर्ण उपवास हो, पुनः तीन दिनों तक बिना माँगे खाया २०. अर्थ कर्मभिरात्मकृतैर्गुरुमिवात्मानं मन्येतात्मार्थे प्रसृतयावकं श्रपयेदुदितेषु नक्षत्रेषु । न ततोऽग्नौ जुहुयात् । न चात्र बलिकमं । अनृतं श्रप्यमाणं शृतं चाभिमन्त्रयेत । यवोसि धान्यराजोसि वारुणो मधुसंयुतः । निर्णोदः सर्वपापानां पवित्रमृषिभिः स्मृतम् ॥ सर्व पुनय मे यवाः ॥ इति । श्रप्यमाणे रक्षां कुर्यात् । नमो रुद्राय भूताधिपतये द्यौः शान्ता कृणुष्व पाजः प्रसितिं न पृथ्वीमित्येतेनानुवाकेन। ये देवाः पुरःसदोऽग्निनेत्रा रक्षोहण इति पञ्चभिः पर्यायः । मानस्तोके ब्रह्मा देवानामिति द्वाभ्याम् । शूतं च लध्वश्नीयात्प्रयतः पात्रे निषिच्य । ये देवा मनोजाता मनोयुजः सुरक्षा क्षपितरस्ते नः पान्तु ते नोऽवन्तु तेभ्यो नमस्तेभ्यः स्वाहेति । आत्मनि जुहुयात् त्रिरात्रं मेधार्थी षड्ात्रं पीत्वा पापकृच्छुद्धो भवति । सप्तरात्रं पीत्वा भ्रूणहननं गुरुतल्पगमनं सुवर्णस्तंन्यं सुरापानमिति च पुनाति । एकादशरात्रं पीत्वा पूर्वपुरुकुतमपि पापं निर्णुदति । अपि वा गोनिष्क्रान्तानां यवानामेकविंशतिरात्रं पीत्वा गणान्पश्यति गणाधिपतिं पश्यति विद्यां पश्यति विद्याधिपति पश्यतीत्याह भगवान् बौधायनः । बोधा० प० सू० (३।६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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