SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रायश्चित्तों (व्रतों) का परिचय १०८९ (याज्ञ० ३।३१६) ने यम को उद्धृत कर कहा है कि जब पापी तीन दिन एवं रात उपवास करके उसके उपरान्त चारों पत्तियों का उबाला हुआ रस कुशोदक के साथ उसी दिन पीता है तो यह पर्णकूर्च कहलाता है। पराशरमाधवीय (२, भा० २, पृ० १८१) ने पर्णकूर्च को पर्णकृच्छ का एक प्रकार माना है। वसिष्ठ, जाबालि एवं अत्रि (११६-११७) ने पर्णकृच्छ्र को अश्वत्थ की पत्तियां मिलाकर छः दिनों का व्रत माना है। विष्णु (४६।२३) ने सात दिनों वाले एक अन्य पर्णकृच्छ का उल्लेख किया है। पर्णकृच्छ-देखिए ऊपर पर्णकूर्च। पावकृच्छ्र-याज्ञ० (३।३१८= देवल ८५) के मत से यह वह प्रायश्चित्त है जिसमें पापी एक दिन केवल दिन में, दूसरे दिन रात में केवल एक बार एवं आगे केवल एक बार (दिन या रात में) भोजन करे किन्तु बिना किसी अन्य व्यक्ति, नौकर या पत्नी से माँगे, और अगले दिन पूर्ण उपवास करे। इस प्रकार यह चार दिनों का व्रत है। किन्तु ग्रासों की संख्या के विषय में मतभेद है। आपस्तम्ब (मिता० , याज्ञ० ३।३१८) के मत से ग्रास २२, २६ एवं २४ होने चाहिए जब कि सायं या प्रातः या बिना माँगे खाया जाय। पराशर ने इसी प्रकार १२, १५ या १४ ग्रासों की संख्या दी है। चतुर्विंशतिमत (परा० मा०, २, भाग २,पृ० १७२) ने क्रम से १२, १५ एवं १० की संख्या घोषित की है। पादोनकृच्छ—यह ९ दिनों का होता है न कि प्राजापत्य की भाँति १२ दिनों का। इसमें तीन दिनों तक केवल दिन में खाया जाता है, तीन दिनों तक बिना माँगे खाया जाता है और तीन दिनों तक पूर्ण उपवास रहता है (यहाँ इन तीन दिनों में केवल रात्रि वाले भोजन का आदेश छोड़ दिया गया है)। पुष्पकृच्छ-अग्नि० (१७१।१२) एवं मिता० (याज्ञ० ३।३१६) के मत से इसमें एक मास तक पुष्पों को उबालकर पीया जाता है। प्रसृतयावक या प्रसूतियावक-विष्णु (अध्याय ४८), बौधा० घ० सू० (३६), हारीत (परा० मा० २, भाग २, पृ० १९२-१९४) ने इसका विस्तृत वर्णन किया है। प्रसूति का अर्थ है अंगुलियों के साथ खुला हाथ, किन्तु हथेली में गहराई हो। इस प्रकार खुली हथेली में जो भरे जाते हैं। बौघायन ने जो उपर्युक्त तीनों लेखकों में सबसे प्राचीन हैं, इस प्रायश्चित्त का वर्णन इन शब्दों में किया है—यदि व्यक्ति दुष्कृत्यों के कारण अपने अन्तःकरण को भारी समझ रहा है तो उसे स्वयं, नक्षत्रों के उदित हो जाने के उपरान्त, प्रसूतियावक लेकर, अर्थात् अर्धाञ्जलि या पसर भर जौ उबालकर लपसी बनानी चाहिए। उसे न तो वैश्वदेव को आहुतियाँ देनी चाहिए और न बलिकर्म ही करना चाहिए (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय २०)। अग्नि पर प्रसृतियावक रखने के पूर्व जौ का संस्कार करना चाहिए और जब वह उबल रहा हो या उबल जाय तो ऐसा मन्त्र कहना चाहिए-"तू यव है, धान्यों (अन्नों) का तू राजा है, तू वरुण के लिए पवित्र है और मधु से सिक्त है, ऋषियों ने तुझे सभी पापों का नाशक एवं पवित्र माना है।" इसके उप: रान्त पाँच श्लोक और हैं जिनमें पापकर्ता को दुष्कृत्यों, शब्दों, विचारों और सभी पापों से उबारने के लिए कहा गया है और कहा गया है कि उसके कष्ट एवं दुर्भाग्य नष्ट हो जायें और गणों (श्रेणियों या जन-संघों), वेश्याओं, शूद्रों द्वारा दिये गये भोजन से या जन्म होने पर या श्राद्ध पर खाये गये भोजन से या चोर के भोजन से या नवश्राद्ध (अर्थात् मृत्यु की पहली, तीसरी, पाँचवीं, सातवीं, नवीं, ग्यारहवीं तिथि पर किये गये श्राद्ध) के भोजन से जो अपवित्रता उत्पन्न हो गयी हो या भयानक मर्मान्तक (हत्या आदि से उत्पन्न) पापों से, बच्चों के प्रति किये गये अपराधों से, राजसभा में १९. कुशपलाशोदुम्बरपयशंखपुष्पीवटब्रह्मसुवर्चलानां पत्रः क्वथितस्याम्भसः प्रत्येकं ( प्रत्यहं ? ) पानेन पर्णकृच्छः। विष्णुधर्मसूत्र (४६।२३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy