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धर्मशास्त्र का इतिहास
तक चलता है और मोने से मिश्रित (जिसमें सोना घिसा गया हो या जिसके साथ सोना उबाला गया हो) भोजन किया जाता है।
नित्योपवास कृच्छ-प्रायश्चित्तप्रकाश का कथन है कि इसमें छ: वर्षों तक केवल सायं एवं प्रातः भोजन करना होता है और दोनों भोजनों के बीच में जल-ग्रहण नहीं किया जाता।
पञ्चगव्य-पंचगव्य में पांच वस्तुएं होती हैं; गोमूत्र, गोबर, दुग्ध, दही एवं घी। इसके विस्तत वर्णन के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय २२।६ पंचगव्य की आहुति अग्नि में 'इरावती' (ऋ० ७।९९।३), 'इदं विष्णुः' (ऋ० १।२२।१७), 'मानस्तोके' (ऋ० १२११४१८), 'शं नो देवीः' (ऋ० १०।९।४) नामक मन्त्रों के साथ दी जाती है और अवशिष्ट अंश पी लिया जाता है। यह कमल-दल द्वारा या तीन पत्तियों वाले पलाश की मध्य शाखा द्वारा ग्रहण किया जाता है। मनु (११।१६५ = अग्निपुराण १६९।३०) ने छोटी-छोटी चोरियों के लिए पंचगव्य-ग्रहण की व्यवस्था दी है। याज्ञ० (३।२६३) ने गोहत्या करने वाले को एक मास तक यह व्रत करने को कहा है। मिता० (याज्ञ० ३।२६३) ने विष्णु को उद्धृत कर कहा है कि गोवध में निम्न तीन व्रतों में एक का सम्पादन होना चाहिए; एक मास तक प्रति दिन तीन पल पंचगव्य पीना, पराक या चान्द्रायण नामक व्रत का सम्पादन । यद्यपि विष्णु (५४१७) एवं अत्रि (श्लोक ३००) का कथन है कि सुरा पीनेवाला ब्राह्मण एवं पंचगव्य पीनेवाला शूद्र नरक (विष्णु के अनुसार महारौरव) में जाता है, किन्तु देवल (६१), पराशर (११।३ एवं २०) एवं मध्य काल के प्राय० मयूख (पृ० १३), शूद्रकमलाकर (पृ० ४२) जैसे निबन्धों ने शूद्रों को बिना वैदिक मन्त्रों के पंचगव्य-ग्रहण की अनुमति दी है । सभी वर्गों की स्त्रियों को, जो कुछ कृत्यों में शूद्रवत् मानी गयी हैं, विकल्प से पंचगव्य-ग्रहण की अनुमति मिली है।
पत्रकृच्छ—देखिए पर्ण-कूर्च।
पराक-मनु (११।२१५), बौधा० ध० सू० (४।५।१६), याज्ञ० (३।३२० =शंख १८१५=अत्रि २८), अग्नि० (१७०।१०), विष्ण (४६।१८) एवं बृहस्पति के मत से इसमें बारह दिनों तक भोजन नहीं करना होता, कर्ता को इन्द्रिय-निग्रह के साथ लगातार जप-होम आदि करते रहना पड़ता है। इस प्रायश्चित्त से सारे पाप कट जाते हैं।
पर्णकूर्च-पत्रकृच्छ का यह कठिनतर प्रकार है । याज्ञ० (३।३१६ =देवल ३८) एवं शंख-लिखित ने इसे निम्न रूप में वर्णित किया है-जब लगातार प्रत्येक दिन पलाश, उम्बर, कमल एवं बिल्ब (बेल) की पत्तियाँ उबाली जाती हैं और उनका क्वाथ या रस पीया जाता है, उसके उपरान्त कुशोदक (वह जल जिसमें कुश डाल दिये गये हों) पीया जाता है तो वह पर्णकृच्छ कहलाता है। इस प्रकार यह व्रत पाँच दिनों का होता है। मिता०
१५. वाजप्रसूतिमप्येकां कनकेन समन्विताम् । भुजानस्य तथा मासं कृच्छ धनददैवतम् ॥ विष्णुधर्मोत्तर (प्राय० प्रकाश)।
- १६. गोमत्रं गोमयं क्षीरं वधि सपिः कुशोदकम् । निर्दिष्टं पञ्चगव्यं तु पवित्रं पापनाशनम् ॥...गायच्या गृह्य गोमूत्रं गन्धद्वारेति गोमयम् । आप्यायस्वेति च क्षीरं दधिक्राव्णेति वै दधि । तेजोसि शुक्रमित्याज्यं देवस्य त्वा कुशोदकम् ॥ पराशर (११।२८-३३) । और देखिए मिता० (याज्ञ० ३।३१४) एवं अपरार्क (पृ० १२५०)।
१७. गोध्नस्य पञ्चगव्येन मासमेकं पलत्रयम् । प्रत्यहं स्यात्पराको वा चान्द्रायणमथापि वा ॥ विष्णु (मिता०, यात्र० ३।२६३; परा० मा० २, भाग १, पृ० २४३; 'मासमेकं निरन्तरम् । प्राजापत्यं पराको वा।'
१८. शंखलिखितौ-पबिल्वपलाशोदुम्बरकुशोदकान्येकैकमभ्यस्तानि पर्णकृच्छः । मद० पारि० (पृ०७३३)। तथा वसिष्ठः। पयोदुम्बरपलाशबिल्वाश्वत्थकुशानामुदकं पीत्वा षडरात्रेणैव शुध्यति । प्रा० प्रक० (१० १२८)।
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