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________________ चान्द्रायण व्रत १०८५ नहीं होता और अधिक ग्रासों की संख्या आरम्भ एवं अन्त में होती है, इसी से यह पिपीलिकामध्य कहलाता है। इस अन्तिम का विवरण वसिष्ठ (२३।४५) एवं मनु (११।२।६) ने किया है। और देखिए विष्णु (४७१५-६); 'यस्यामावस्या मध्ये भवति स पिपीलिकामध्यः यस्य पौर्णमासी स यवमध्यः।' जब मास में १४ या १६ तिथियाँ पड़ जायँ तो ग्रासों के विषय में उसी प्रकार व्यवस्था कर लेनी चाहिए। और देखिए हरदत्त (गौतम २७।१२-१५)। कल्पतरू ने कुछ और ही कहा है-कृष्ण पक्ष के प्रथम दिन १५ ग्रास और आगे एक-एक ग्रास कम करके अमावास्या के दिन एक प्रास, तब शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन दो ग्रास और आगे एक-एक ग्रास अधिक करके शक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को १५ ग्रास और पूर्णमासी को पूर्ण उपवास । किन्तु यह भ्रामक बात है, क्योंकि इस सिद्धान्त से चन्द्र की ह्रास-वृद्धि पर आधारित समता नष्ट हो जाती है, जैसा कि वसिष्ठ (२३।४५) एवं पराशर (१०।२) आदि स्मृतियों में कहा गया है। एक दूसरे मत से चान्द्रायण की दो कोटियाँ हैं-मुख्य एवं गौण। प्रथम यवमध्य एवं पिपीलिकामध्य है और दूसरी पुनः चार भागों में बंटी है, यथा-सामान्य, ऋषिचान्द्रायण, शिशुचान्द्रायण एवं यतिचान्द्रायण। सामान्य (या सर्वतोमुख) में कुल २४० ग्रास खाये जाते हैं जो इच्छानुकूल मास के तीस दिनों में यज्ञिय भोजन के रूप में खाये जा सकते हैं (इसमें चन्द्र की घटती-बढ़ती पर विचार नहीं किया जाता (मनु १११२२०; बौधा० ध० सू० ४।५।२१; याज्ञ ० ३।३२४ और उसी पर मिताक्षरा, मदनपारिजात आदि)। यहां पर चन्द्र के स्वरूपों पर न आधारित होते हुए भी प्रायश्चित्त चान्द्रायण ही कहा गया है। यहां मीमांसा का कुण्डपायिनामयन नियम प्रयुक्त हुआ है। गौतम (२७।१२-१५) से पता चलता है कि उन्होंने ३२ दिनों (पिपीलिकामध्य) या ३१ दिनों का चान्द्रायण परिकल्पित किया है, क्योंकि उन्होंने कहा है कि कर्ता को शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को उपवास रखना चाहिए, पूर्णिमा को १५ ग्रास खाने चाहिए और आगे एक-एक ग्रास इस प्रकार कम करते जाना चाहिए कि अमावास्या को पूर्ण उपवास हो जाय और शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन एक ग्रास खाना चाहिए और आगे बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा को १५ ग्रास खाने चाहिए। इस प्रकार शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि (जिस दिन उपवास पूर्ण रहता है) से आगे के मास की पूर्णिमा तक कुल मिलाकर ३२ दिन हुए और चान्द्रायण पिपीलिकामध्य प्रकार का हुआ। ____ ग्रास के आकार के विषय में कई मत अभिव्यक्त हैं। गौतम (२७।१०) एवं विष्णु (४७।२) के मत से ग्रास इतना बड़ा होना चाहिए कि खाते समय मुख की आकृति न बिगड़े। याज्ञ० (३।३२३) ने एक ग्रास को मोरनी के अण्डे के बराबर , पराशर (१०॥३) ने कुक्कुटी (मुर्गी) के अण्डे के बराबर तथा शंख ने हरे आमलक फल के बराबर माना है। मिता० ने गौतम के दिये हए आकार को बच्चों एवं जवानों के लिए उचित ठहराया है तथा अन्य आकागें को व्यक्ति की शक्ति के अनुरूप विकल्प से दिया है। चान्द्रायण की विधि का वर्णन गौतम (२७।२-११), बौधा० (३.८), मनु (११।२२१-२२५), वृद्ध-गौतम (अध्याय १६) आदि में हुआ है। गौतम द्वारा उपस्थापित विधि का वर्णन नीचे दिया जाता है। सम्भवतः गौतम का ग्रन्थ धर्मशास्त्रग्रन्थों में सबसे प्राचीन है। गौतम (२६।६-११) ने कृच्छ प्रायश्चित्त के लिए जो सामान्य नियम दिये हैं वे चान्द्रायण के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। प्रायश्चित्तकर्ता को पूर्णिमा के एक दिन पूर्व मुण्डन कराना पड़ता है और उपवास करना होता है। वह तर्पण करता है, घृताहुतियाँ देता है, यज्ञिय भोजन को प्रतिष्ठापित करता है और 'आप्यायस्व' (ऋ० ११९१११७) एवं 'सन् ते पयांसि' (ऋ० १९१।१८) का पाठ करता है। उसे वाज० सं० (२०।१४) या तै० ब्रा० (२।६।६।१) में दिये हुए 'यद् देवा देवहेळनम्' से आरम्भ होनेवाली चार ऋचाओं के पाठ के साथ घृताहुतियाँ देनी होती हैं। इस प्रकार इन ९. कुक्कुटाणप्रमाणं तु ग्रास व परिकल्पयेत् । पराशर (१०॥३); प्राय० म० (पृ० २१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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