SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८६ धर्मशास्त्र का इतिहास चारों के साथ कुल मिलाकर सात घृताहुतियाँ दी जाती हैं। घृताहुतियों के अन्त में 'देवकृतस्य' (वाज० सं० ८।१३ ) से आरम्भ होनेवाले आठ मन्त्रों के साथ समिधा की आहुतियाँ दी जाती हैं। प्रत्येक ग्रास के साथ मन में निम्न शब्दों में से एक का पाठ किया जाता है-ओं भूः भुवः स्वः, तपः, सत्यं, यशः, श्री: ( समृद्धि), ऊर्ज, इडा, ओज, तेज:, वर्चः, पुरुषः, धर्मः, शिवः ", या सभी शब्दों का पाठ नमः स्वाहा' यह कहकर किया जाता है। याज्ञिक भोजन निम्न में कोई एक होता है; चावल (भात), भिक्षा से प्राप्त भोजन, पीसा हुआ जौ, भूसारहित अन्न, यावक ( जो की लपसी ), दूध, दही, घृत, मूल, फल एवं जल । इनमें से क्रम से पहले वाला अच्छा माना जाता है। जलकृच्छ —- देखिए नीचे तोयकृच्छ्र । तप्तकृच्छ्र — इसके विषय में कई मत हैं। मनु (११।२१४), वसिष्ठ (२१।२१), विष्णु ( ४६।११ ), बौघा० घ० सू० (४|५|१०), शंख -स्मृति ( १८३४), अग्नि० ( १७१।६-७ ), अत्रि ( १२२-१२३ ) एवं पराशर (४/७ ) ने इसे १२ दिनों का माना है और तीन-तीन दिनों की चार अवधियाँ निर्धारित की हैं। इसमें तीन अवधियों के अन्तर्गत एक अवधि में गर्म जल, दूसरी में गर्म दूध एवं तीसरी में गर्म घी पीया जाता है और आगे तीन दिनों तक पूर्ण उपवास रहता है और गर्म वायु का पान मात्र किया जाता है (मनु ११।२१४ ) । मन् ने इतना और जोड़ दिया है कि इसमें तीन बार के स्थान पर (जैसा कि कुछ प्रायश्चित्तों में किया जाता है) केवल एक बार स्नान होता है और इन्द्रिय - निग्रह किया जाता है । याज्ञ० ( ३।३१७ = देवल ८४ ) ने इसे केवल चार दिनों का माना है, जिनमें प्रथम तीन दिनों में क्रम से गर्म दूध, घी एवं गर्म जल लिया जाता है और चौथे दिन पूर्ण उपवास किया जाता है । मिता० ( याज्ञ० ३।३१७ ) ने इसे महातप्तकृच्छ्र कहा है और दो दिनों के तप्तकृच्छ्र की भी व्यवस्था दी है, जिसमें प्रथम दिन पापी तीनों, अर्थात् गर्म जल, गर्म दूध एवं गर्म घी ग्रहण करता है और दूसरे दिन पूर्ण उपवास करता है । प्रायश्चित्तप्रकाश ने मिताक्षरा की इस व्यवस्था को प्रामाणिक नहीं माना है। उसने २१ दिनों के तप्तकृच्छ्र का भी उल्लेख किया है। प्राय० प्रकाश ने यह भी कहा है कि बारह दिनों का तप्तकृच्छ्र बड़े पापों तथा ४ दिनों का हलके पापों के लिए है । पराशर (४८), अत्रि ( १२३ - १२४) एवं ब्रह्मपुराण (प्राय० वि०, पृ० ५११ ) ने गर्म जल, गर्म दूध एवं गर्म घी की मात्रा क्रम से ६ पल, ३ पल एवं एक पल दी है। ब्रह्मपुराण ने जोड़ा है कि जल, दूध एवं धी क्रम से सन्ध्या, प्रातः एवं मध्याह्न में ग्रहण करना चाहिए। " तुलापुरुष - कृच्छ्र -- जाबालि ने इसके लिए आठ दिनों की अवधि दी है। शंख ( १८०९ - १० ) एवं विष्णु (४६।२२) ने इस दिनों की अवधि वाले तुलापुरुष - कृच्छ्र का उल्लेख किया है, जिसमें खली या पिण्याक, भात का माड़, तक्र, जल, सत्तू अलग-अलग दिन में खाया जाता है, एक दिन खाने के उपरान्त उपवास किया जाता है। याश० (३३ १२ १०. मन्त्र के शब्द ये हैं "ओं भूर्भुवः स्वस्तपः सत्यं यशः श्रीगि डोजस्तेजो वर्चः पुरुषो धर्मः शिव इत्येतसानुमन्त्रणं प्रतिमन्त्रं मनसा । नमः स्वाहेति वा सर्वान् । गौ० (२७।८-९ ) ; कुछ पाण्डुलिपियों में 'वर्चः' शब्द नहीं आया है। याज्ञ० ११. षट्पलं तु पिवेदम्भस्त्रिपलं तु पयः पिबेत् । पलमकं पिबत्सपिस्तप्तकृच्छ्रं विधीयते । पराशर (४८) । (१।३६३-३३६४) के अनुसार एक पल ४ या ५ सुवर्ण के बराबर होता है और एक सुवर्ण तोल में ८० कृष्णलों (गुञ्जा) के बराबर होता है। १२. तत्र जाबालः । पिण्याकं च तथाचामं तत्रं चोदकसक्तवः । त्रिरात्रमुपवासश्च तुला पुरुष उच्यत ॥ प्राय० सार (१० १७८), परा० मा० (२, भाग २, पृ० १८३ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy