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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास गोव्रत - प्राय० प्रकरण ( पृ० १३२ ) ने मार्कण्डेय पुराण को इस विषय में उद्धृत किया है" व्यक्ति को गोमूत्र में स्नान करना चाहिए, गोबर को ही खाकर रहना चाहिए, गौओं के बीच में खड़ा रहना चाहिए, गोबर पर ही बैठना चाहिए, जब गौएँ जल पी लें तभी जल पीना चाहिए, जब तक वे खान लें तब तक खाना नहीं चाहिए, जब वे खड़ी हों तो खड़ा हो जाना चाहिए, जब वे बैठें तो बैठ जाना चाहिए। इस प्रकार लगातार एक मास तक करना चाहिए।" {૦૮૪ चान्द्रायणचन्द्र के बढ़ने एवं घटने के अनुरूप ही जिसमें भोजन किया जाय, उस कृत्य को चान्द्रायण व्रत कहते हैं ।" यह शब्द पाणिनि (५।१।७२ ) में भी आया है ( पारायण -तुरायण चान्द्रायणं वर्तयति ) । बहुत प्राचीन काल से ही चान्द्रायण के दो प्रकार कहे गये हैं; यवमध्य (जौ के समान बीच में मोटा एवं दोनों छोरों में पतला ) एवं पिपीलिकामध्य ( चींटी के समान बीच में पतला एवं दोनों छोरों में मोटा ) । बौधा० घ० सू० (३|८|३३ ) ने ये प्रकार लिखे हैं । जाबालि के अनुसार इसके पाँच प्रकार हैं; यवमध्य, पिपीलिकामध्य, यतिचान्द्रायण, सर्वतोमुखी एवं शिशुarrator | हम इनका वर्णन आगे करेंगे। याज्ञ० ( ३।३२६ ) के मत से जब स्मृतियों में कोई विशिष्ट प्रायश्चित्त न व्यवस्थित हो, तो चान्द्रायण से शुद्धि प्राप्त की जाती है, यह व्रत प्रायश्चित्त के लिए न करके धर्म संचय करने के लिए भी किया जाता है और जब इसे प्रकार वर्ष भर यह किया जाता है तो कर्ता मृत्यु के उपरान्त चन्द्रलोक में जाता है। यही बात मनु (११।२२१ ) एवं गौतम ( २७/१८ ) ने भी कही है। जब यह व्रत धर्मार्थ किया जाता है तो वपन या शिर- मुण्डन नहीं होता ( गौतम २७/३ -- वपनं व्रतं चरेत् ) । गौतम (१९।२० ) एवं वसिष्ठ ( २२।२० ) ने कहा है कि कृच्छ्र, अतिकृच्छ्र एवं चान्द्रायण सभी पापों के लिए समान प्रायश्चित्त हैं ( सभी सम्मिलित रूप में महापातकों के लिए, हलके पापों के लिए पृथक्-पृथक्, जैसा कि हरदत्त आदि ने कहा है ) । मिलाइए मनु (५।२१ एवं ११।२१५, बौघा घ० सू० ४।५ । १६ ) । मनु (११।२७), याज्ञ० ( ३।३२३), वसिष्ठ (२७।२१), बौघा० घ० सू० (४/५/१८) आदि ने चान्द्रायण ( यवमध्य प्रकार ) की परिभाषा यों दी है— मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन एक ग्रास या पिण्ड (कौर) भोजन किया जाता है, दूसरी तिथि को दो ग्रास, तीसरी तिथि को तीन ग्रास... और इसी प्रकार बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा के दिन १५ ग्रास खाये जाते हैं, इसके उपरान्त कृष्ण पक्ष के प्रथम दिन १४ ग्रास, दूसरे दिन १३ ग्रास.. इस प्रकार कृष्ण चतुर्दशी को एक ग्रास खाया जाता है और अमावास्या के दिन पूर्ण उपवास किया जाता है। यहाँ मास के मध्य में ग्रासों की अधिकतम संख्या होती है, अतः यह यवमध्य प्रकार है, क्योंकि उस दिन पूर्णमासी होती है (चन्द्र पूर्ण रहता है), इसके उपरान्त चन्द्र छोटा होने लगता है। यहाँ व्रत के बीच में ही पूर्णमासी होती है। यदि कोई कृष्ण पक्ष की प्रथम तिथि को व्रत आरम्भ करता है तो वह एक ग्रास कम कर देता है अर्थात् केवल १४ ग्रास खाता है और इसी प्रकार ग्रासों में कमी करता जाता है। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को वह एक ग्रास खाता है और अमावास्या को एक ग्रास भी नहीं। इसके उपरान्त शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन एक ग्रास लेता है और इस प्रकार बढ़ाता बढ़ाता पूर्णमासी के दिन १५ ग्रास खाता है। इस दूसरी स्थिति में मास पूर्णिमान्त होता है। इस क्रम में व्रत के मध्य में एक भी ग्रास ७. चन्द्रस्यायनमिवायनं चरणं यस्मिन् कर्मणि हासवृद्धिभ्यां तच्चान्द्रायणम् । मिता० ( याज्ञ० ३।३२३ ) | वास्तव में 'चान्द्रायण' शब्द 'चन्द्रायण' होना चाहिए, किन्तु यह पारिभाषिक शब्द है अतः प्रथम शब्द 'च' को विस्तारित 'च' कर दिया गया है। ८. अनाविष्टेषु पापेषु शुद्धिश्चान्द्रायणेन तु । धर्मार्थं यश्चरे वे तच्चन्द्रस्यैति सलोकताम् ॥ याज्ञ० (३३३२६ ) ; संवत्सरं चाप्त्वा चन्द्रमसः सलोकतामाप्नोति । गौतम (२७।१८ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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