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________________ प्रायश्चित्तों (व्रतों) का परिचय १०८३ तीन दिनों तक रात्रि में ही खाना चाहिए, तीन दिनों तक उसे भोजन नहीं माँगना चाहिए (मिल जाय ती खा सकता है) और तीन दिनों तक पूर्ण उपवास करना चाहिए। यदि वह शीघ्र ही पापमुक्त हो जाना चाहता है तो उसे दिन में खड़ा रहना चाहिए और रात में बैठे हो सोना चाहिए। गौतम ( २६।२-२६) ने प्रथम कृच्छु का (जिसे पश्चात्कालीन लेखकों ने प्राजापत्य की संज्ञा दी है) वर्णन करके अतिकृच्छ्र ( २६।१८-१९ ) की व्याख्या की है और तब कृच्छातिकृच्छ्र की ( २६।२० ) । बौवा० ६० सू० (२२१।९१) ने पराक का वर्णन कृच्छ की भाँति ही किया है। आप० घ० सू० ( ११९/२७/७ ) ने १२ दिनों के कृच्छ का वर्णन किया है। गौतम ( २६।२-१६) द्वारा वर्णित कुच्छ बारह दिनों का है और उसे मन (११।२११), शंख (१८१३), याज्ञ० ( ३।३१९) आदि ने प्राजापत्य के नाम से पुकारा है। परा० मा० (२, माग १, ५० ३०) एवं प्राय० प्रकाश के मत से कृच्छ्र शब्द बिना किसी विशेषण के प्राजापत्य का द्योतक है। प्राय तत्त्व ( पृ० ४८१ ) का कथन है कि गौतम ( २६११-५) द्वारा वर्णित कृच्छ्र को मनु (११।२११) ने प्राजापत्य माना है। भोजन के अतिरिक्त अन्य नियम गौतम ने इस प्रकार दिये हैं—सत्य बोलना; अनार्य पुरुषों एवं नारियों से न बोलना; 'रौरव' एवं 'यौवाजय' नामक सामों का लगातार गायन; प्रातः, मध्याह्न एवं सायं स्नान; ऋग्वेद (१०।९।१-३), तैत्ति० ब्रा० ( १/४/८/१) एवं तै० सं० (५।६।१) के मन्त्रों के साथ मार्जन करना; तेरह ( गौतम २६ । १२) मन्त्रों के साथ तर्पण; गौतम द्वारा निर्धारित तेरह मन्त्रों के साथ आदित्य (सूर्य) की पूजा; उन्हीं तेरह मन्त्रों के साथ घृताहुतियाँ देना और तेरहवें दिन लौकिक अग्नि में पके हुए चावलों की आहुतियाँ सोम, अग्नि एवं सोम, इन्द्र एवं अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेवों, ब्रह्मा, प्रजापति एवं स्विष्टकृत् अग्नि को देना तथा ब्रह्मभोज । कृच्छ्रसंवत्सर - आप० ध० सू० ( १।९।२७-८) ने इस प्रायश्चित्त का उल्लेख किया है, जिसमें वर्ष भर कृच्छ्र व्रत लगातार किये जाते हैं। कृच्छ्रातिकृच्छ - गौतम (२६।२०), साम० ब्रा० ( १९१२२८) एवं वसिष्ठ (२४१३) ने इसे वह कृच्छ्र कहा है जिसमें उन दिनों जब कि भोजन की अनुमति रहती है केवल जल ग्रहण किया जाता है और गौतम (२६।२३) एवं साम० ब्रा० ( ११२ ९ ) का कथन है कि इस प्रायश्चित्त से व्यक्ति के सभी पाप कट जाते हैं। याज्ञ० ( ३।३२० देवल ८६, प्रथमार्ध) एवं ब्रह्मपुराण (प्राय० प्रकाश) के मत से इसमें २१ दिनों तक केवल जल ग्रहण किया जाता है। गौतम एव याज्ञ० के इस अन्तर का समाधान निवन्धों ने यह कहकर किया है कि अवधि पापी की सामर्थ्य पर निर्भर है। यम ने २४ दिनों की अवधि दी है (अपरार्क, पृ० १२३८ ) । और देखिए परा० मा० (२, भाग १, पृ० १७९ ) एवं मदनपारिजात ( पृ० ७१६ ) । मनु ( ११।२०८ - विष्णु ५४/३० ) के मत से यह प्रायश्चित्त उसके लिए है जो किसी ब्राह्मण को किसी अस्त्र से ऐसा मारता है कि रक्त निकल आता है। प्राय० प्रकरण ( पृ० १५) का कहना है कि जो लोग कृच्छ नहीं कर सकते वे प्रतिनिधि ( प्रत्यास्नाय) के रूप में एक (पयश्विनी) गाय दे सकते हैं, इसी प्रकार अतिकृच्छ्र एवं कृच्छ्रातिकृच्छ्र के प्रत्याम्नाय स्वरूप क्रम से दो एवं चार गौएँ दी जा सकती हैं। गोमूत्रकृच्छ्र -- प्रायश्चित्तसार ( पृ० १८७) ने इस विषय में एक श्लोक उद्धृत किया है- "एक गौ को जी-गेहूँ मिलाकर भरपेट खिलाना चाहिए और उसके उपरान्त उसके गोबर से जौ के दाने निकालकर गोमूत्र में उसके आटे की लपसी या माँड़ बनाकर पीना चाहिए।"" ६. आ तृप्तेश्चारयित्वा गां गोधूमान् यवमिश्रितान् । तान् गोमयोत्थान् संगृह्य पिबेद् गोमूत्रयावकम् ॥ ( प्रा० सार, पृ० १८७) । महार्णव ने इसे योगयाज्ञवल्क्य से उद्धृत किया है और 'पिबेत्' के स्थान पर 'पचेत्' लिखा है। ૬૪ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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