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धर्मशास्त्र का इतिहास
अकृच्छ्र ( और देखिए कृच्छ्र) । आपस्तम्बस्मृति (९१४३ - ४४) के अनुसार यह छः दिनों का प्रायश्चित्त है जिसमें एक दिन केवल एक बार, एक दिन केवल सन्ध्याकाल, दो दिन बिना माँगे भोजन करना पड़ता है और दो दिनों तक पूर्ण उपवास करना पड़ता है। मिताक्षरा ने एक अन्य प्रकार दिया है, जिसमें तीन दिनों तक बिना माँगे प्राप्त जन करना पड़ता है और तीन दिनों तक पूर्ण उपवास करना पड़ता है।'
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अक्षमेधावभृथस्नान---यह अश्वमेध के अन्त में समुद्र या पवित्र नदी में संस्कारजन्य अथवा कृत्य-स्नान होता है । विष्णु (३६ के उत्तरार्धं ) ने महापातकों एवं अनुपातकों के लिए अश्वमेघ की व्यवस्था दी है। केवल सम्राट् अथवा अभिषिक्त राजा ही अश्वमेध कर सकते हैं जिसके अन्त में एक विशिष्ट स्नान किया जाता 1 देखिए इस ग्रन्थ का ख ड २, अध्याय ३५, जहाँ अश्वमेध का वर्णन है। प्राय० वि० ( पृ० ६५ ) के मत से अश्वमेघ केवल क्षत्रिय ही कर सकता है। अतः यह प्रायश्चित्त केवल क्षत्रियों के लिए है। किन्तु कुल्लुक ( मनु ११।९२ ) एवं प्राय ० तत्त्व (दोनों ने भविष्यपुराण का हवाला दिया है) ने कहा है कि ब्राह्मण भी अश्वमेघ के अन्त में होनेवाले स्नान में भाग लेकर अज्ञान में किये गये ब्रह्महत्या के महापातक से छुटकारा पा सकता है।'
आग्नेय कृच्छ्र - अग्निपुराण एवं विष्णुधर्मोत्तरपुराण के मत से यदि व्यक्ति केवल तिल खाकर बारह दिन व्यतीत कर दे तो वह आग्नेय कृच्छ्र कहलाता है।'
ऋषिचान्द्रायण -- बृहद् विष्णु (प्राय० प्रकरण, पृ० १३२ ) के मत से इस प्रायश्चित्त में एक मास तक केवल तीन कौर यज्ञिय भोजन किया जाता है। "
एका भक्त -- प्राय ० प्रकाश के मत से यदि कोई एक मास तक दिन में केवल एक बार खाये तो इसे एकभक्त
व्रत कहा जाता है।
कृच्छ —— कई प्रायश्चित्तों के लिए यह एक सामान्य शब्द है । साम० ब्रा० ( १।२1१ ) में आया है"अथातस्त्रीन् कृच्छ्रान् व्याख्यास्यामः । हविष्यान् त्र्यहमनवताश्यदिवाशी ततस्त्र्यहं त्र्यहमयाचितव्रतस्यहं नाश्नाति किचनेति कृच्छ्र- द्वादशरात्रस्य विधिः", जिसका तात्पर्य है कि "व्यक्ति को तीन दिनों तक केवल दिन में ही खाना चाहिए,
पेयान्येकैकं तु द्वयहं द्वयहम् । अतिसान्तपनं नाम श्वपाकमपि शोधयेत् ॥ मिता० ( याज्ञ० ३।३१५), प्राय० सार ( पृ० १९१ ) ; अपरार्क ( पृ० १२३४) ।
२. सायंप्रातस्तथैवैकं विनद्वयमयाचितम् | दिनद्वयं च नाश्नीयात्कृच्छ्राषं तद्विधीयते ॥ आपस्तम्बस्मृति ( ९/४३ - ४४ ) ; मिता० ( याज्ञ० ३।३१८ ) ; प्राय० वि० ( पृ० ५०९ ); परा० मा० (२, भाग २, पृ० १७३ ) एवं प्रा० सा० ( पृ० १७२ ) ।
३. अश्वमेघप्रायश्चित्तं तु राज्ञ एव तंत्र तस्यैवाधिकारात् ।... अश्वमेधावभृथस्नाने विप्रस्याप्यधिकारः । तथा च कल्पतरुतं भविष्यपुराणम् । यदा तु गुणवान् विप्रो हन्याद्विप्रं तु निर्गुणम् । अकामतस्तवा गच्छेत्स्नानं चंबाश्वमेधिकम् ॥ ततश्चावभृथस्नानं क्षत्रियविषयमिति प्रायश्चित्तविवेकोक्तं हेयम् । प्रा० त० ( पृ० ५४४ ) । और देखिए निर्देशित शब्दों के लिए प्राय० वि० ( पृ० ६५ ) ।
४. तिलैर्द्वादशरात्रेण कृच्छ्रमाग्नेयमातिनुत् । अग्निपुराण ( १७१०१४ ) ; विष्णुधर्मोत्तर ( प्राय० प्रका० ) । ५. तथा बृहद्विष्णुः -- त्रींस्त्रीन् पिण्डान् समश्नीयानियतात्मा दृढव्रतः । हविष्यान्नस्य वै मासमूविचान्द्रायणं चरन् ॥ प्राय० प्रक० ( पृ० १३२) । प्राय० वि० ( पृ० ५२०), प्राय० त० ( पृ० ५४४) एवं प्राय० सा० ( पृ० १९६) ने इस श्लोक को यम का माना है।
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