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अध्याय ५ प्रायश्चित्तों के नाम
इस अध्याय में हम स्मृतियों एवं निबन्धों में उल्लिखित सभी प्रायश्चित्तों को क्रमानुसार उपस्थित करेंगे। ऐसा करने में हम केवल मन्त्रोच्चारण, उपवास आदि को छोड़ देंगे। छोटी-मोटी व्याख्याएँ एवं संकेत मात्र उपस्थित किये जायेंगे, क्योंकि प्रायश्चित्तों की विस्तृत चर्चा गत अध्याय में हो चुकी है।
अघमर्षण (ऋग्वेद १०।१९०११-३) । अत्यन्त प्राचीन धर्मशास्त्र-ग्रन्थों (यथा--गौतम (२४।११), बौधा० घ० सू० (४।२।१९।२०), वसिष्ठ (२६३८), मनु (११।२५९-२६०), याज्ञ० (३३०१), विष्णु (५५७), शंख (१८।१-२) आदि ने इसे सभी पापों का प्रायश्चित्त माना है। उनका कथन है कि यदि व्यक्ति जल में खड़ा होकर दिन में तीन बार (हरदत्त के अनुसार तीन दिनों तक) अघमर्षण मन्त्रों का पाठ करता है तो वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और यह प्रायश्चित्त अश्वमेध के अन्त में किये गये स्नान के समान पवित्र माना जाता है। प्राय० सा० (पृ. १९९) ने भी इसका उल्लेख किया है। व्यक्ति को तीन दिनों का उपवास, दिन में खड़ा रहना, रात में बैठा रहना एवं अन्त में दुधारू गाय का दान करना होता है। शंख (१८।१-२) एवं विष्णु (४७१-९) ने इसका सविस्तर वर्णन किया है।
अतिकृच्छ (और देखिए कृच्छ्र के अन्तर्गत)। मनु (१११२१३) के मत से यह प्रायश्चित्त तीन दिनों तक केवल प्रातःकाल एक कौर भोजन से, उतने ही दिन संध्याकाल एक कौर भोजन से, पुनः तीन दिनों तक बिना मांगे एक कौर भोजन से और अन्त में तीन दिनों तक पूर्ण उपवास से सम्पादित किया जाता है। याज्ञ० (३।३१९) ने एक कौर के स्थान पर एक मुट्ठी भोजन की व्यवस्था दी है। मिता० (याज्ञ० ३।३१९) एवं प्राय० सा० (पृ० १७६) के मत से मनु की व्यवस्था शक्त लोगों के लिए तथा याज्ञ० की अशक्त लोगों के लिए है। और देखिए साम० ब्रा० (११२।६-७), गौ० (२६।१८-१९), विष्णु (५४-३०), लौगाक्षिगृ० (५।१२-१३), पराशर (१११५४-५५), वसिष्ठ (२४११-२) एवं बौधा० ५० सू० (४।५।८)। मनु (११।२०८) एवं विष्णु (५४।३०) ने इस प्रायश्चित्त को उसके लिए व्यवस्थित किया है जो ब्राह्मण को लाठी या किसी अस्त्र से ठोकता या पीटता है। गौतम (२६।२२) के मत से महापातकों को छोड़कर अन्य पाप इस प्रायश्चित्त से नष्ट हो जाते हैं।
अतिसान्तपन (और देखिए महासान्तपन)। यह कई प्रकार से परिभाषित हुआ है। अग्नि० (१७१।१०) एवं विष्णु (४६।२१) के मत से यह १८ दिनों तक चलता है (महासान्तपन का तिगुना, जिसमें ६ दिनों तक गोमूत्र एवं अन्य पाँच वस्तुओं का आहार करना पड़ता है)। मिता० (याज्ञ० ३३३१५) ने यम को उद्धृत कर इसके लिए १२ दिनों की व्यवस्था की ओर संकेत किया है। प्रायः मयूख (पृ० २३) ने इसके लिए १५ दिनों की व्यवस्था दी है।
१. यदा तु षण्णां सान्तपनद्रव्याणामेककस्य दूधहमपयोगस्तदातिसान्तपनम् । यथाह यमः-एतान्येव तथा
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