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________________ १०८० धर्मशास्त्र का इतिहास व्यवस्था दी है, यथा-दस सहस्र बार गायत्री-जप, जल में खड़ा रहना, ब्राह्मण को गोदान (प्राजापत्य को लेकर)ये चार समान हैं, और तिल के साथ होम, सम्पूर्ण वैदिक संहिता का पाठ, बारह ब्राह्मणों का भोजन एवं पावकेष्टि समान कहे गये हैं। चतुर्विशतिमत के अनुसार प्राजापत्य का प्रतिनिधि एक गाय का दान है, सान्तपन का प्रत्याम्नाय (प्रतिनिधि) दो गौएँ हैं तथा पराक, तप्तकृच्छ एवं अतिकृच्छ का प्रत्याम्नाय तीन गौएँ तथा चान्द्रायण के लिए आठ गौएँ है। इन सरल से सरलतर एवं सरलतम विधियों का फल यह हुआ है कि मध्य काल में महापातकों के प्रत्याम्नाय ब्रह्म-भोज, धन-दान या अन्य दानों तक चले आये। उदाहरणार्थ, मिता० (याश० ३॥३२६) का कथन है कि १२ वर्षों के प्रायश्चित्त के स्थान पर विकल्प से ३६० प्राजापत्य किये जा सकते हैं, प्रत्येक प्राजापत्य १२ दिनों तक चलता रहेगा; यदि व्यक्ति यह भी न कर सके तो वह ३६० दुधारू गौओं का दान कर दे; किन्तु यदि यह असम्भव हो तो उनके बराबर मूल्य या ३६० निष्क दे या ऐसा न कर सकने पर इनका आधा या चौथाई मूल्य दान करे। याज्ञ० (३१३०९) ने व्यवस्था दी है कि गायत्री के साथ एक लाख होम किया जा सकता है या तिल-दान के साथ ब्राह्मणों द्वारा वेद-पाठ कराया जा सकता है। वसिष्ठ (२८॥१८-१९=अत्रि ६१७-८) एवं विष्णु (९०११०) का कथन है कि वैशाख की पूर्णिमा को सात या पांच ब्राह्मणों को मधु एवं तिल के साथ भोजन देने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। ये व्यवस्थाएँ मध्य काल के अधिकांश ग्रन्थों में दी हुई हैं, यथा-स्मृत्यर्थसार (पृ० १४९, १५५), प्रायश्चित्तसार (पृ. २०३), प्रायश्चित्ततत्त्व (पृ० ५१७, ५४१), प्रायश्चित्तमयूख (पृ० १८) आदि। इन्हीं व्यवस्थाओं के फलस्वरूप आजकल के लोग मरते समय एक या अधिक गौओं का दान या पुरोहितों को धन-दान देकर अपने पापों का प्रायश्चित्त कर लेते हैं। मध्यकाल के लेखकों ने दुधारू गौओं, साधारण गौओं एवं बैलों के मूल्य के विषय में लिखकर मनोरंजक जानकारी दी है। प्रायश्चित्तविवेक (पृ० १९९) के मत से पयस्विनी (दुधारू) गाय का मूल्य तीन पुराण, साधारण गाय का एक पुराण एवं बैल का पाँच पुराण था। प्रायश्चित्ततत्त्व (पृ० ५१७-५१८) ने कात्यायन का हवाला देकर कहा है कि गाय का मूल्य ३२ पण, बछड़े का एक पुराण है। एक पण तांबे का होता है और तोल में ८० रसी या मूल्य में ८० वराटकों (कौड़ियों) के समान होता है तथा १६ पण के बराबर एक पुराण होता है (मविष्य एवं मत्स्य के अनुसार), निष्क वह नहीं है जैसा कि मनु (८।१३७) ने कहा है, प्रत्युत वह एक दीनार-निष्क है, अर्थात् सोना जो तोल में ३२ रत्ती होता है। प्रायश्चित्तेन्दुशेखर (पृ० ७) ने याज्ञ० (१३३६५) का अनुसरण कर कहा है कि निष्क चांदी है और तोल में चार सुवर्णों या एक पल के सामन होता है। एक रत्ती की तोल औसत १.८ ग्रेन होती है, अतः ८० रत्ती का एक ताम्र-पण तोल में लगभग १४४ ग्रेन होगा। इसी तरह से एक धेनु ३२ पणों (या दो पुराणों) के बराबर था, अर्थात् ताम्र के २६ तोला के बराबर (जब एक तोला १८० ग्रेन के बराबर लिया जाय)। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ४, जहाँ प्राचीन सिक्कों एवं तोलों के विषय में लिखा हुआ है। कालक्रम से आगे चलकर कई शताब्दियों में लेखकों के मतों में अन्तर पड़ गया। विज्ञानेश्वर के मत से एक चाँदी का निष्क 'चार सुवर्ण' के बराबर होता है । लीलावती के अनुसार २० वराटक (कौड़ियाँ) एक काकिणी के बराबर, ४ काकिणी एक पण के बराबर तथा एक निष्क २५६ पणों के बराबर होता है। 'गवामभावे निष्कं स्यासवर्ष पादमेव वा।' परा०मा० (२, भाग २, पृ० १९७), प्रा० सा० (पृ० २०३) एवं मिता. (यास० ३३३२६, जहां नाम नहीं दिया हुआ है)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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