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प्रायश्चित्तों के प्रत्याम्नाय (प्रतिनिधि)
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ऋषियों ने देखा कि प्राचीन स्मृतियों में वर्णित कुछ प्रायश्चित्त बड़े भयावह एवं मरणान्तक हैं, अतः उन्होंने क्रमशः अपेक्षाकृत अधिक उदार एवं सरलयश्चित्तों की व्यवस्था की। उदाहरणार्थ हारीत का कथन है कि धर्मशास्त्रज्ञ ब्राह्मणों को अपराधी की वय (अवस्था), क्ति एवं काल को देखकर ही प्रायश्चित्त की व्यवस्था देनी चाहिए, प्रायश्चित्त ऐसा होना चाहिए कि प्राणों की हानि न हो और वह शुद्ध हो जाय ; ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि पापी को महान् कष्ट या आपत्ति का सामना करना पड़े।" अंगिरा ने भी कहा है कि सर्वसम्मति से परिषद् द्वारा ऐसी ही प्रायश्चित्तव्यवस्था देनी चाहिए कि जीवन-हानि न हो। शंख ने घोषित किया है कि "ब्राह्मण को चोरों, भयानक पशओं, हाथियों एवं अन्य पशुओं से आकीर्ण वन में जीवनबाधा के भय से प्रायश्चित्त सम्पादन नहीं करना चाहिए। शरीर में ही धर्म के पालन का मूल है, अतः वह रक्षणीय है। जिस प्रकार जल पर्वत से निकलकर स्रोत बनता है उसी प्रकार धर्म शरीर से आचरित होकर संचित किया जा सकता है।"२८
समय के परिवर्तन के साथ प्रायश्चित्तों के बदले प्रत्याम्नाय नामक सरलतम प्रायश्चित्त-प्रतिनिधियों की व्यवस्था की गयी। आप० श्री. सू० (५/२०११८- यद्यनाढ्योऽग्नीनादधीत काममेवैकां गां दद्यात सा गवां प्रत्याम्नायो भवतीति विज्ञायते; ६।३०।९), शांखा० श्रौ० सू० (१४१५११६) एवं अन्य सूत्रों ने इसी अर्थ में प्रत्याम्नाय शब्द का प्रयोग किया है। संवर्त का कथन है कि यदि पापी प्राजापत्य प्रायश्चित्त करने में समर्थ न हो तो वह उसके स्थान पर एक गाय का दान करे और यदि गाय न दे सके तो उसका मुल्य दे (परा०मा०, २, भाग १, पृ. १९७; प्राय० सार पृ० २०३; प्राय० तत्त्व प० ५१७ एवं ५४१)। पराशर (२।६३-६४) ने प्राजापत्य के चार प्रतिनिधि बतलाये हैं, यथा--गायत्री मन्त्र (ऋ० ३१६२।१०) का दस सहस्र बार जप, २०० प्राणायाम, प्रत्येक बार सिर सुखाकर किसी पवित्र जलाशय में बारह बार स्नान तथा किसी पवित्र स्थान की दो योजन यात्रा। गौतम (१९।१६) से पता चलता है कि प्रायश्चित्त में गाय का प्रतिनिधि सोना है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि गाय के स्थान पर एक या आधा या चौथाई निष्क दिया जा सकता है। चविंशतिमत ने प्राजापत्य के लिए कतिपय प्रत्याम्नायों की
२७. ययावयो यथाकालं यथाप्राणं च ब्राह्मणे। प्रायश्चित्तं प्रदातव्यं ब्राह्मणैर्धर्मपाठकैः॥ येन शुद्धिमवाप्नोति न च प्राणवियुज्यते । आर्ति वा महतीं याति न चैतद् व्रतमादिशेत् ॥ हारीत (परा० मा० २, भाग १, पृ० २३५); पर्षत्संचिन्त्य तत्सर्व प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत् । सर्वेषां निश्चितं यत्स्याद्यच्च प्राणान् न घातयेत् ॥ अंगिरा (परा० मा० २, भाग १, पृ० २३६; मदनपारिजात, पृ० ७७९)।
२८. तस्करश्वापदाकीर्ण बहुव्यालमृगे वने। न व्रतं ब्राह्मणः कुर्यात्प्राणबाधाभयात्सदा ॥ शरीरं धर्मसर्वस्वं रमणीयं प्रयत्नतः। शरीरात् स्रवते धर्मः पर्वतात्सलिलं यथा ॥ शंख (१७।६३ एवं ६५; मदनपारिजात पृ० ७२८, अपरार्क पृ० १२३१)। अपरार्क ने एक अन्य श्लोक भी जोड़ दिया है--'सर्वतो जीवितं रक्षेज्जीवन्पापं व्यपोहति । वतः कृच्छ्रस्तथा दारित्याह भगवान्यमः॥ (शंख १७.६४)।
२९. प्राजापत्यव्रताशक्ती धेनुं दद्यात्पयस्विनीम् । धेनोरभावे दातव्यं तुल्यं मूल्यं न संशयः॥ संवर्त (परा० मा० २, भाग २, पृ० १९७; प्राय० सार, पृ० २०३; प्राय० त०, पृ० ५१७ एवं ५४१)। मिता० (याज्ञ० ३३३२६) ने इसे स्मृत्यन्तर माना है, और दूसरा आधा इस प्रकार जोड़ा है-“मूल्यार्धमपि निष्कं वा तदर्घ शक्त्यपेक्षया।" इस श्लोक को अपरार्क (पृ० १२४८) ने मार्कण्डेयपुराण का माना है। प्राजापत्यकृच्छ्रस्य चतुरः प्रत्याम्नायानाह; कृच्छं देव्ययुतं बंब प्राणायामशतवयम् । पुण्यती नाशिरःस्नानं द्वादशसंख्यया ॥ द्वियोजने तीर्थयात्रा कृच्छंमेकं प्रकल्पितम् ॥ पराशर (१२।६३-५४) एवं परा० मा० (२, भाग २, पृ० ४७)। मूल्यं च यथाशक्ति देयम् । अत एव ब्रह्मपुराणे
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