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धर्मशास्त्र का इतिहास
प्रायश्चित्त करते समय भोजन आदि के विषय में कुछ नियमों का पालन आवश्यक ठहराया गया है। हारीत के मत से माष एवं मसूर की दाल प्रायश्चित्त के समय नहीं खानी चाहिए, मधु का सेवन भी वज्यं है और इसी प्रकार दूसरे का भोजन या दूसरे के घर में भोजन नहीं करना चाहिए, संभोग से दूर रहना चाहिए, अनुचित समय पर नहीं बोलना चाहिए, यदि स्त्रियों, शूद्रों या उच्छिष्टों से बात हो जाय तो आचमन करना चाहिए। यम ने आदेश दिया है कि प्रायश्चित्त करते समय शरीर मर्दन कराना, सिर में तेल लगवाना, ताम्बूल खाना, अंजन लगाना या उन वस्तुओं का सेवन करना, जिनसे कामोद्दीपन होता है या शक्ति आती है, वर्जित है ।
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प्रा० प्रकाश के मत से प्रायश्चित्त आरम्भ करते समय 'अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि' ( व्रतों के पति अग्नि, मैं व्रत का सम्पादन करूँगा ) मन्त्र पढ़ना चाहिए और अन्त करते समय 'अग्ने व्रतपते व्रतमचारिषं तदशकं तन्मे राधि' ( व्रतों के स्वामी, मैंने व्रत कर लिया है, मुझे यह करने की शक्ति थी, यह मेरे लिए शुभ हो) का पाठ करना चाहिए। ● प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं; प्रकट ( बाह्य रूप में किया जानेवाला) एवं रहस्य ( गुप्त रूप से किया जानेवाला) । अन्तिम के विषय में दो-एक शब्द यहाँ दिये जा रहे हैं। इस विषय में गौतम ( २४ । १ - ११ ), वसिष्ठ ( २५। १-३), मनु, (११।२४८-२६५), याज्ञ० ( ३।३०१-३०५), विष्णु (५५) आदि ने नियम दिये हैं। यदि कोई पाप किसी अन्य को न ज्ञात हो तो रहस्य प्रायश्चित्त किया जा सकता । व्यभिचार एवं महापातकियों के संसर्ग से उत्पन्न पाप के लिए भी रहस्य प्रायश्चित्त किया जा सकता है। यद्यपि दोनों बातें क्रम से उस नारी एवं महापातकी को ज्ञात रहती हैं जिनके साथ व्यक्ति ने व्यभिचार एवं संसर्ग स्थापित किया था । वसिष्ठ ( २५-२ ) ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि रहस्य - प्रायश्चित्त का अधिकार केवल उसी को है जो अग्निहोत्र करता है, जो अनुशासित एवं विनीत है, वृद्ध है या विद्वान् है । प्रकाश-प्रायश्चित्त अन्य लोगों के लिए है। यदि व्यक्ति स्वयं प्रायश्चित्त का ज्ञाता है तो उसे शिष्टों की परिषद् में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वह किसी जानकार व्यक्ति से सामान्य ढंग से. . पूछ ले सकता है । वसिष्ठ ( २५।३ ) का कथन है कि जो सदैव प्राणायाम, पवित्र वचनों, दानों, होमों एवं जप में लिप्त रहते हैं वे पाप से मुक्त हो जाते हैं। मनु (११।२२६) का कथन है कि जिनके पाप जनता में प्रकट नहीं हुए हैं, वे होमों एवं मन्त्रों से शुद्ध हो सकते हैं। स्त्रियाँ एवं शूद्र भी रहस्य - प्रायश्चित्त कर सकते हैं। यद्यपि वे होम नहीं कर सकते एवं वैदिक मन्त्रों का जप नहीं कर सकते, किन्तु वे दानों एवं प्राणायाम से शुद्धि पा सकते हैं (मिता०, याज्ञ० ३।३०० ) । गौतम ( २६ २ ) एवं मनु (११।२५३) का कहना है कि जो वर्जित दान प्राप्त करना चाहता है, या जो ऐसा दान ग्रहण कर लेता है। उसे पानी में कमर तक खड़े होकर 'तरत् स मन्दि' (ऋग्वेद १०।५८।१-४) से आरम्भ होनेवाले चार मन्त्रों का पाठ करना चाहिए । गौतम ( २४१६) ने ब्रह्म-घातक के लिए प्रथम दस दिनों तक दूध पर, पुनः दस दिनों तक घी पर और पुनः दस दिनों तक जल पर रहने को कहा है और वह भी केवल एक बार प्रातःकाल, और कहा है कि उसे गीले वस्त्र धारण करने चाहिए और प्रति दिन आठ अंगों के नाम से प्रतीकात्मक घृताहुतियाँ देनी चाहिए, जो निम्न हैं-- शरीर के बाल, नख, चर्म, मांस, रक्त, मांसपेशियाँ, हड्डियाँ एवं मज्जा, और अन्त में कहना चाहिए 'मैं मृत्यु के मुख में आहुतियाँ दे रहा हूँ ।' याज्ञ० ( ३।३०१ ) के मत से उसको दस दिनों तक उपवास करना चाहिए, जल में खड़े होकर अघमर्षण सूक्त (ऋ० १०। १९० ) का जप करना चाहिए, एक दुधारू गाय देनी चाहिए। किन्तु विष्णु का कथन है कि उसे किसी बहती नदी में एक मास तक स्नान करना चाहिए, प्रति दिन १६ प्राणायाम करने चाहिए और केवल एक बार यज्ञिय भोजन करना चाहिए, तब कहीं उसे शुचिता प्राप्त हो सकती है। विष्णु के मत से सुरापान करनेवाला ब्रह्म हत्या के लिए व्यवस्थित व्रत का पालन करके एवं अघमर्षण का पाठ करके शुद्ध हो सकता है; ब्राह्मण के सोने की चोरी करनेवाला तीन दिनों का उपवास करके एवं गायत्री का दस सहस्र बार जप करके पवित्र हो सकता है और माता, बहिन, पुत्री, पुत्रवधू आदि से व्यभिचार करनेवाला 'सहस्रशीर्षा ( ऋ० १० १९० ) आदि १६ मन्त्रों का पाठ करके शुद्ध हो सकता है।
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