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________________ प्रायश्चित्त करते समय के अन्य कर्तव्य १०७५ प्रकीर्णक पातकों के लिए मन (११।२०९), विष्णु (४२।२) एवं याज्ञ० (३।२९४) ने कहा है कि ब्राह्मणों को दुष्कर्मों के स्वभाव, कर्ताओं की योग्यता तथा काल, स्थान आदि संबंधी अन्य परिस्थितियों पर विचार कर व्यवस्था देनी चाहिए । २३ कुछ निबन्धों ने प्रायश्चित्त-सम्पादन के लिए विशिष्ट समय निर्धारित किये हैं। हारीत ने प्रथम नियम यह दिया है कि विश्वसनीयता, प्यार, लालच, भय या असावधानी से किये गये किसी अनुचित या पापमय कर्म का शुद्धीकरण तत्क्षण होना चाहिए। दक्ष (२।७३ ) ने कहा है कि नैमित्तिक एवं काम्य विषयों में देरी नहीं करनी चाहिए, अर्थात् समय के अनुसार ही उनका सम्पादन नियमविहित होता है । पाप करने के उपरान्त यदि एक वर्ष से अधिक हो जाय और शुद्धीकरण न हुआ हो तो मनु एवं देवल के अनुसार दूना प्रायश्चित्त करना पड़ता है। प्राय० त० ( पृ० ४७४, ५१२ ) ने व्यवहारचिन्तामणि एवं एक ज्योतिष-ग्रन्थ का उद्धरण देते हुए कहा है कि प्रायश्चित्त एवं परीक्षण कार्य (दिव्य) महीने की अष्टमी और चतुर्दशी तिथि को नहीं करना चाहिए और न विवाह एवं परीक्षण कार्य शनिवार एवं बुधवार को होना चाहिए । प्रायश्चित्तेन्दुशेखर ( पृ० १५ ) ने कहा है कि शिष्टों के मत से संकल्प चतुर्दशी तिथि को किया जा सकता है किन्तु वास्तविक कृत्य अमावस्या को करना चाहिए। यदि अपराधी सूतक में पड़ा हो तो सूतककाल के उपरान्त प्रायश्चित्त करना चाहिए । शिष्टों की परिषद् द्वारा व्यवस्थित प्रायश्चित्तों की विधि के विषय में जो बातें कही गयी हैं उनमें समयसमय पर अन्तर पड़ता चला गया है। गौतमधर्मसूत्र (२६।६-१७) ने कृच्छ के सम्पादन की विधि यों दी है—'यदि पापी पाप से शीघ्र मुक्त होना चाहे तो उसे दिन में खड़ा एवं रात्रि में बैठा रहना चाहिए ( अर्थात् उसे रात्रि में बैठकर ही सोना चाहिए, लेटकर नहीं), उसे सत्य बोलना चाहिए, अनार्यों (शूद्र आदि) से बातचीत नहीं करनी चाहिए, दिन में तीन बार स्नान करना चाहिए, मार्जन करना चाहिए (कुश से जल लेकर मन्त्रों का उच्चारण करते हुए सिर एवं अन्य अंगों पर छिड़कना चाहिए), 'आपो हिष्ठा' आदि (ऋग्वेद १०।९।१-३) मन्त्रों, पवित्रवती मन्त्रों एवं तै० सं० (५/६/१|१-८) के आठ मन्त्रों का पाठ करना चाहिए। इसके उपरान्त १३ मन्त्रों के आदि में 'नमः' एवं अन्त में 'नमः' का उच्चारण करते हुए तर्पण (जल लेकर) करना चाहिए ( प्रत्येक मन्त्र में क्रम से ६, ४, ४, १३, २, २, २, ६, ५, २, २, ६ एवं २ देवताओं के नाम होने चाहिए)। यह प्रायश्चित्ती के लिए आदित्य (सूर्य) का पूजन है। वह १३ मन्त्रों के साथ घी की आहुतियाँ देता है। इस प्रकार वह १२ दिन व्यतीत कर देता है। तेरहवें दिन वह अग्नि, सोम, अग्नि एवं सोम, इन्द्र एवं अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेवों, ब्रह्मा, प्रजापति, स्विष्टकृत् अग्नि को ९ आहुतियाँ देता है। इसके उपरान्त वह ब्रह्मभोज करता है।' आप ध० सू० (२।६।१५।९ ) ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि ब्रह्मभोज में केवल शुचियुक्त (सदाचारी) एवं मन्त्रवान् (वेदज्ञ) ब्राह्मणों को ही निमन्त्रित करना चाहिए।" बौघा० घ० सू० (२1१1९५ - ९९ ) ने व्यव २३. नैमित्तिकानि काम्यानि निपतन्ति यथा यथा । तथा तथा हि कार्याणि न कालं तु विलम्बयेत् ॥ बक्ष (२/७३; प्राय० त०, १०५१२) । यथा स्मृतिसागरे देवलः । कालातिरेके द्विगुणं प्रायश्चित्तं समाचरेत् । द्विगुणं राजदण्डं च स्व शुद्धिमवाप्नुयात् ॥ कालातिरेके संवत्सरातिरेके । संवत्सराभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो दमः । इति मनुवचने । प्राय० त०, पृ० ४७४ । यह मनु (८१३७४) है । 'तस्माद्विश्रम्भात् स्नेहाद् लोभाद् भयात्प्रमादाद्वा अशुभं कृत्वा सद्यः शौचमारभेत्' इति हारीतेन सद्यःकरणेमुक्तम् । अत्रापि व्यवहारचिन्तामणी विशेषः । नाष्टम्यां न चतुर्दश्यां प्राय.श्चितपरीक्षणे । न परीक्षा विवाहश्च शनिभौम दिने तथा ॥ प्राय० त०, पृ० ४७४ । २४. शुचीन्मन्त्रवतः सर्वकृत्येषु भोजयेत् । आप० ० सू० ( २२६ १५१९) । ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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