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२०७४
धर्मशास्त्र का इतिहास
बोलनेवाले होते हैं। उसने हरिवंश के वचन का हवाला देते हुए शकों, यवनों, कम्बोटों, पारदों, पहलवों के वस्त्रों एवं केश विन्यास का वर्णन किया है।" देखिए इस विषय में इस ग्रन्थ का खण्ड २ अध्याय २, ७ एवं २८ । दो-एक अन्य बातें यहाँ दी जा रही हैं। विष्णुधर्मोत्तरपुराण (२।७३ २०३ - २०६) ने कहा है कि जब म्लेच्छों या आक्रमणकारियों द्वारा व्यक्तियों का हरण हो जाता है या वन में जाते हुए लोगों का हरण हो जाता है और वे जब पुनः लौटकर स्वदेश में चले आते हैं, तो वर्जित भोजन करने के कारण उनके लिए जो प्रायश्चित्त निर्धारित होता है वह उनके वर्ण- विशेष पर निर्भर है, यथा ब्राह्मण को आधा कृच्छ एवं पुनरुपनयन करना पड़ता है, क्षत्रिय को तीन चौथाई कृच्छ और पुनरुपनयन करना पड़ता है, वैश्य को चौथाई कृच्छ्र एवं शूद्र को चौथाई कृच्छ्र तथा दान देना पड़ता है। मनु ( ८/१६९ ), विष्णु ( ८1६-७ ) एवं याज्ञ० (२२८९ ) ने घोषणा की है कि जो बलवश दिया, बलवश अधिकृत किया जाय, बलवश लिखित कराया जाय तथा जो कुछ भी विनिमय या आदान-प्रदान बलवश हो, वह अवैधानिक होता है । आजकल इन कथनों का उपयोग कर शुद्धि की जा सकती है और बिछुड़े हुए लोगों को हिन्दू धर्म के अन्तर्गत लाया जा सकता है। इस प्रकार लौटाये गये लोगों के विषय में परावर्तन शब्द का उपयोग किया जा सकता है। इसी प्रयोग द्वारा कुछ नियमों में परिवर्तन करके अहिन्दू को भी हिन्दू बनाया जा सकता है। प्राचीन काल में व्रात्यस्तोम के सम्पादन द्वारा अन्य लोगों को हिन्दू जाति में लाया जाता था। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय ७ एवं खण्ड ३, अध्याय ३४, जहाँ जावा, बाल, सुमात्रा, स्याम आदि दक्षिण-पूर्वी देशों के लोगों के हिन्दू बनने का उल्लेख किया गया है। रूसी अजरबैजान देश की राजधानी बाकू के पास सुरुहनी के ज्वालाजी अग्नि मन्दिर में प्राप्त १८वीं एवं १९वीं शताब्दी के कुछ शिलालेखों से पता चलता है कि हिन्दू यात्री वहाँ जाते थे और उन्होंने ही उन्हें अंकित कराया था। इन शिलालेखों का आरम्भ गणेश की प्रशस्ति से होता है। एक श्लोक यों है- " श्लोकः । देवयज्ञे व्रते तीर्थे सत्पात्र ब्रह्मभोजने । पितृश्राद्धे जटीहस्ते घनं व्रजति धर्म्यताम् ॥”
मनु (११।१२४ - विष्णु ३८।७) ने उपर्युक्त सभी जातिभ्रंशकर कर्म ज्ञान से करने पर सान्तपन एवं अज्ञान में करने पर प्राजापत्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है, और उन कर्मों के करने पर, जिन्हें ऊपर संकरीकरण या अपात्रीकरण कहा गया है, एक मास तक चान्द्रायण करने को कहा है ( मनु ९ | १२५ ) ; इसी प्रकार मलावह कर्मों के लिए कर्ता को तीन दिनों तक केवल जौ की लपसी पर रहने को कहा है। ये मनुवचन अग्नि० ( १७०।२३-२५) में भी पाये जाते हैं। विष्णु (३९।२, ४० २ एवं ४१।५ ) ने संकरीकरण, अपात्रीकरण या मलिनीकरणीय दुष्कर्मों के लिए कुछ भिन्न प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है। यम एवं बृहस्पति के वचनों के लिए देखिए मिताक्षरा ( याज्ञ० ३ । २९० ) । अन्य प्रकार के
२१. बोमांसखादको यश्च विरुद्ध बहु भाषते । सर्वाचारविहीनश्च म्लेच्छ इत्यभिधीयते ।। बौधा० ( प्राय० त०, पृ० ५४९; सगरः स्वां प्रतिज्ञां च गुरोर्वाक्यं निशम्य च । धर्मं जघान तेषां वै वेषान्यत्वं चकार ह ॥ अर्ध शकानां शिरसो मुण्डं कृत्वा व्यसर्जयत् । यवनानां शिरः सर्वं काम्बोजानां तथैव च । पारदा मुक्तकेशाश्च पह्लवाः श्मश्रुधारिणः । निःस्वाध्यायवषट्काराः कृतास्तेन महात्मना ॥ शका यवनकाम्बोजाः पारदाश्च विशांपते । कोलिसर्पाः समहिषाः दाद्यश्चलाः सकेरलाः । सर्वे ते क्षत्रियास्तात धर्मस्तेषां निराकृतः । हरिवंश हरिवंशपर्व ( १४/१५ - १९; प्राय० त० पृ० ५४९ ) ।
२२. म्लेच्छ तानां चोरैर्वा कान्तारे वा प्रवासिनाम् । भक्ष्याभक्ष्यविशुद्धयर्थं तेषां वक्ष्यामि निष्कृतिम् ॥ पुनः प्राप्य स्वदेशं च वर्णानामनुपूर्वशः । कृच्छस्यार्धे ब्राह्मणस्तु पुनः संस्कारमर्हति ।। पादोनान्ते क्षत्रियस्तु अर्को वैश्य एव च । पादं कृत्वा तथा शूद्रो दानं दत्वा विशुध्यति ॥ विष्णुधर्मोत्तर ( २०७३।२०३ - २०६ ) ।
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