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धर्मशास्त्र का इतिहास स्था दी है कि कृच्छ प्रायश्चित्त में दिन में तीन बार स्नान करना चाहिए, पृथिवी पर ही सोना चाहिए, केवल एक वस्त्र धारण करना चाहिए, सिर, मूंछ एवं शरीर के बाल तथा नख कटा लेने चाहिए। यही नियम स्त्रियों के लिए भी है, वे केवल सिर के बाल नहीं कटातीं। मन (११।२२२-२२५) ने कहा है कि सभी प्रायश्चित्तों में महाव्याहृतियों के साथ होम प्रति दिन होना चाहिए; पापी को अहिंसा, सत्य, क्रोध-विवर्जन, ऋजुता का पालन करना चाहिए: वस्त्रों के साथ दिन में तीन बार और रात्रि में तीन बार स्नान करना चाहिए; शूद्र, पतित एवं स्त्रियों से बातचीत नहीं करनी चाहिए; दिन में खड़े एवं रात्रि में बैठे रहना चाहिए या यदि कोई ऐसा करने में अयोग्य हो तो उसे पृथिवी (स्थण्डिल या चबूतरा) पर सोना चाहिए; ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए, विद्यार्थी के नियमों (यथा-मूंज की मेखला, पलाशदण्ड घारण आदि) का पालन करना चाहिए । देवों, ब्राह्मणों एवं गुरुजनों का सम्मान करना चाहिए और लगातार गायत्री एवं पवित्र वचनों का पाठ करना चाहिए। यही व्यवस्था वसिष्ठ (२४१५) ने भी दी है। याज्ञ० (३१३१२-१३) के वचन महत्त्वपूर्ण हैं। प्रायश्चित्तों के लिए यमों (ब्रह्मचर्य, दया, सहिष्णुता, सत्य, अहिंसा आदि) एवं नियमों (स्नान, मौन, उपवास, शुचिता आदि) का पालन अति आवश्यक है। लौगाक्षिगृह्य० (५।३-११) ने प्रायश्चित्तों की विधि दी है। याज्ञ० (३।३२५) ने कहा है कि कृच्छ या चान्द्रायण प्रायश्चित्त करते समय तीन बार स्नान करना चाहिए, पवित्र मन्त्रों (जैसा कि वसिष्ठ २८।११-१५ ने कहा है) का पाठ करना चाहिए और उस भात के पिण्डों को खाना चाहिए जिन पर गायत्री मन्त्र का पाठ हुआ हो। शख (१८।१२-१४) ने प्रायश्चित्त की विधि बतायी है। प्रायश्चित्तों की विधि के विषय में मदनपारिजात (पृ० ७८१-७८४), प्राय० वि० (पृ० ५०३-५०६), प्राय० सार (पृ० ३१, ३२ एवं २०२२०३), प्राय० तत्त्व (पृ० ४९७-५१०, ५२३-५२४), प्राय० मयूख (पृ० १८-२१), प्राय० प्रकाश, प्रायश्चित्तेन्दुशेखर (पृ० १५ एवं ८८) आदि ने विस्तार के साथ वर्णन किया है। किन्तु हम उन्हें यहाँ उल्लिखित करना अनावश्यक समझते हैं। संक्षेप में विधि यों है--प्रायश्चित्त आरम्भ करने के एक दिन पूर्व नख एवं बाल कटा लेने चाहिए; मिट्टी, गोबर, पवित्र जल आदि से स्नान कर लेना चाहिए; घृत पीना चाहिए, शिष्टों की परिषद् द्वारा व्यवस्थित नियमों के पालन की घोषणा करनी चाहिए। दूसरे दिन व्यक्ति को स्नान करना चाहिए, श्राद्ध करना चाहिए,पंचगव्य पीना चाहिए, होम करना चाहिए, सोना, गाय आदि ब्राह्मणों को दक्षिणा में देना चाहिए और उन्हें भोज देना चाहिए। पराशर (१११२) का कथन है कि प्रायश्चित्त के उपरान्त पंचगव्य पीना चाहिए तथा प्रायश्चित्त करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शद्र को क्रम से एक, दो, तीन या चार गायें दान देनी चाहिए। जाबालि का कहना है कि प्रायश्चित्त के आरंभ एवं अन्त में स्मार्त अग्नि में व्याहृतियों के साथ घी की आहुतियाँ देनी चाहिए, श्राद्ध करना चाहिए एवं सोने तथा गाय की दक्षिणा देनी चाहिए। देखिए अपरार्क (पृ० १२३०) एवं परा० माध० (२, भाग २,पृ० १९२) जहाँ जाबालि का उद्धरण दिया हुआ है। प्राय० प्रकाश का कथन है कि महार्णव के मत से व्याहृति-होम की संख्या २८ या १०८ होनी चाहिए।
वपन या मुण्डन के विषय में भी कुछ लिख देना आवश्यक है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (११५।६।१-२) में आया है-"असुरों ने सर्वप्रथम सिर के बाल मुंडाये, उसके उपरान्त मूंछे मुंडवा दी और तब काँखें, इसी से वे नीचे गिरे (या उनका मुख नीचा हुआ) और पराभूत हुए; किन्तु देवों ने सर्वप्रथम काँखों के बाल बनवाये, उनके उपरान्त मूंछ बनवायीं
और तब सिर के बाल कटाये।" प्राय प्रकाश ने इस कथन को विमस्त रूप में उद्धृत करके वपन के तीन प्रकार दिये हैं; देव (देवों का), आसुर (असुरों का) एवं मानुष (मानवों का)। इनमें आसुर वर्जित है और वैदिक अग्नियों को
२५. मुण्डस्त्रिषवणस्नायी अधःशायी जितेन्द्रियः। स्त्रीशपतितानां च वर्जयेत्परिभाषणम् ॥ पवित्राणि जपेच्छक्त्या जुहुयाच्चैव शक्तितः। अयं विधिः स विज्ञेयः सर्वकृच्छेषु सर्वदा ॥शंख (१८।१२-१३)।
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