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________________ १०६६ धर्मशास्त्र का इतिहास एक ही प्रकार का प्रायश्चित्त है। इस विषय में विभिन्न व्याख्याओं के लिए देखिए मदनपारिजात ( पृ० ८३७), मेघातिथि (मनु ११।१०३) । मनु (११।५८ एवं १७० - १७१), याज्ञ० ( ३।२३१), संवर्त ( १५९ ) ने गुरु- पत्नी ( आचार्याणी), उच्च जाति की कुमारी, पुत्र-वधू, सगोत्र नारी, सोदरा नारी ( बहिन आदि) या अन्त्यज नारी साथ संभोग करने को गुरुतल्प-गमन के समान ही माना है और प्रायश्चित्त उससे थोड़ा ही कम ठहराया है। मनु (११।१०५) एवं याज्ञ० (३।२६०) ने मृत्यु के अतिरिक्त यह प्रायश्चित्त बताया है- पापी को विजन वन में रहना चाहिए, दाढ़ी बढ़ने देना चाहिए, चिथड़े धारण करने चाहिए और एक वर्ष (याज्ञ० के मत से तीन वर्ष ) तक प्राजापत्य कृच्छ प्रायश्चित्त करना चाहिए। टीकाकारों का मत है कि यह प्रायश्चित्त अज्ञान में किये गये दुष्कृत्य के लिए है । मनु ( ११/२६ ० ) एवं याज्ञ० (३।२६०) ने तीन मातों का चान्द्रायण व्रत व्यवस्थापित किया है; मनु ने उसे याज्ञिक पदार्थ (यथाफल, मूल या नीवार अन्न) या जौ की लपसी या माँड़ खाने को कहा है और याज्ञ० ने तीन मासों तक वेदसंहिता का पाठ करने को कहा है। टीकाकारों का कथन है कि यह नियम उस विषय में है जहाँ गुरु-पत्नी नीच वर्ण की हो या शूद्रा हो । पराशर (१०।१०-११ ) ने तीन प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है-लिंग काट लेना, तीन कृच्छ्र या तीन चान्द्रायण, जब कि व्यक्ति अपनी माता, बहिन या पुत्री से व्यभिचार करता है। पराशर (१०।१२-१४) ने अन्य सन्निकट सम्बन्ध वाली नारियों के साथ व्यभिचार करने वालों के लिए अन्य प्रायश्चित्त बताये हैं। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२५९) ने शंख का हवाला देकर कहा है कि चारों महापातकों के लिए बारह वर्षों का प्रायश्चित्त होता है, अतः यह नियम सजातीय गुरु- पत्नी के साथ संभोग करने पर भी लागू होता है । प्रायश्चित्तों के विषय में स्मृति-वचन विभिन्न नियम देते हैं, अतः अन्य बातों का हवाला देना आवश्यक नहीं है। मनु ( ११।१७८, विष्णु ५३४९, अग्नि० १६९/४१) एवं शांतिपर्व ( १६५।२९) का कथन है कि वह पाप, जिसमें द्विज किसी वृषली ( चाण्डाल नारी) के साथ एक रात संभोग करता है, तीन वर्षों तक भीख माँगकर खाने एवं गायत्री आदि मन्त्रों के जप से दूर हो जाता है।" और देखिए आप ० ध० सू० (१।९।२७।११) । याज्ञ० ( ३।२३३) के मत से यदि कोई पुरुष चाची, मामी, पुत्र वधू, मौसी आदि से उनकी सहमति से संभोग करता है तो उस व्यभिचारिणी नारी को मृत्यु का राज - दण्ड मिलता है और उसे वही प्रायश्चित्त करना पड़ता है जो पुरुष के लिए व्यवस्थित है । मनु ( ११।१७५ = लघु शातातप १५५ - अग्नि० १६९/३८ ) का कथन है कि यदि कोई ब्राह्मण अज्ञान में चाण्डाल स्त्री या म्लेच्छ स्त्री से संभोग करता है, या चाण्डाल या म्लेच्छ के यहाँ खाता है या दान लेता है तो उसे पतित होने के बाद का प्रायश्चित्त करना पड़ता है, और यदि वह ऐसा ज्ञान करता है तो उन्हीं के समान हो जाता है। देखिए वसिष्ठ (२३।४१ ) एवं विष्णु ( ५३।५।६ ) | महापातक के अपराध में स्त्रियों के विषय में सामान्य नियम यह है कि अन्य लोगों की पत्नियों के साथ पुरुषों के व्यभिचार के लिए जो प्रायश्चित्त व्यवस्थित है वही उन स्त्रियों के लिए भी है जो पुरुषों से व्यभिचार करती हैं ( मन ११।१७६; कात्यायन एवं बृहस्पति ) । किंतु यदि स्त्री का व्यभिचार अज्ञान में हो जाय तो प्रायश्चित्त आघा होता है। वही नियम अंगिरा ने भी दिया है ।" यदि कोई स्त्री पतित होने पर प्रायश्चित्त न करे तो उसे घटस्फोट १०. मनु (११।१७७) का 'वृषली' शब्द कुल्लूक एवं मिताक्षरा द्वारा व्याख्यापित हुआ है। मिता० (याश० ३।२६०) ने स्मृति-वचन उद्धृत किया है—'चण्डाली बन्धकी बेश्या रजःस्था या च कन्यका । ऊढा या च सगोत्रा 'स्याद् वृषल्यः पञ्च कीर्तिताः ॥' शूलपाणि ने 'वृबली' को शूद्री कहा है (देखिए प्राय० प्रकाश) । ११. यत्पुंसः परदारेषु समानेषु व्रतं चरेत् । व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री तवशेषं समाचरेत् !! बृहस्पति ( अपरार्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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