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________________ सुवर्ण की चोरी एवं व्यभिचार का प्रायश्चित्त १२७), प्राय० सार (पृ० ४९), मदनपारिजात (पृ० ८२८-८३४), स्मृत्यर्थसार (पृ० १०८-१०९), स्मृतिमुक्ताफल (पृ० ८८३-८८५)। हम स्थानाभाव से विस्तार नहीं दे रहे हैं। यदि ८० रत्तियों से कम (ब्राह्मण के भी) सोने की चोरी हुई हो, या किसी क्षत्रिय या किसी अन्य अब्राह्मण का सोना किसी भी मात्रा में चोरी गया हो तो चोर को उपपातक का प्रायश्चित्त लगता है। मनु (११४१६२-१६८-मत्स्य २२७।४१-४७) एवं विष्णु (५२।५-१३) ने कई प्रकार के प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है, यथा-अनाज, पके भोजन या धन की चोरी में एक वर्ष का कृच्छ ; पुरुषों या स्त्रियों (दासियों) को भगाने या किसी भूमि को हड़प लेने या कूपों और जलाशयों के जल का अनुचित प्रयोग करने पर चान्द्रायण व्रत; कम मूल्य वाली वस्तुओं की चोरी पर सान्तपन प्रायश्चित्त; विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों, गाड़ी या शय्या या आसन या पुष्पों या फल-मलों की चोरी पर पञ्चगव्य प्राशन का प्रायश्चित्त; धास, लकड़ी, पेड़ों, सूखे भोजन, खाँड, परिधानों, चर्म (या कवच) एवं मांस की चोरी पर तीन दिनों एवं रातों का उपवास ; रत्नों, मोतियों, मंगा, ताम्र, चाँदी, लोहा, कांस्य या पत्थरों की चोरी पर कोदो चावलों का १५ दिनों तक भोजन ; रूई, रेशम, ऊन, फटे खुरों वाले पशुओं (गाय आदि) या बिना फटे खुरों वाले पशुओं (घोड़ा आदि), पक्षियों, सुगंधियों, जड़ी-बूटियों या रस्सी (पानी खींचने वाली) की चोरी पर केवल दुग्ध-पान। चोर को चोरी की वस्तु लोटाकर ही प्रायश्चित्त करना पड़ता था (मन ११११६४ एवं विष्ण ५२।१४)। मेधा ११११६४) का कथन है कि यदि चोरी गयी वस्तु न लौटायी जा सके तो प्रायश्चित्त दूना होता है। इसके अतिरिक्त चोरी के कुछ मामलों में यदि राजा द्वारा शारीरिक दण्ड या मत्य-दण्ड नहीं दिया जाता था तो चोर को चोरी गयी वस्तु का ग्यारहगुना अर्थ-दण्ड देना पड़ता था। देखिए मनु (८।३२१, ३२३) एवं विष्णु (५।८२)। स्तेय के दो प्रकार है-बलपूर्वक चोरी करना (लूट-पाट या डकैती, जिसे साहस कहा जाता है) तथा छिपी तौर से चोरी करना। साहस में क्षत्रिय एवं वैश्य को क्रम से दुगुना एवं तिगुना प्रायश्चित्त करना पड़ता था, और इस विषय में ब्राह्मणों के लिए परिषद प्रायश्चित्त की व्यवस्था करती थी (परा० मा० २, भाग १, पृष्ठ २३१)। छिपकर या गुप्त रूप से सोने या धन की चोरी करने पर यदि जिसकी चोरी हई है वह ब्राह्मण हो और चोर क्षत्रिय या वैश्य हो तो प्रायश्चित्त ब्राह्मण-चोर की अपेक्षा अधिक होता था' (नारद, साहस, १६; देवमतियों, ब्राह्मणों एवं राजाओं का धन उत्तम है)। किन्तु यदि चोरी के सामान वाले स्वामी की जाति चोर की जाति से नीची हो तो बृहद्-विष्णु का नियम लागू होता था, अर्थात् ब्राह्मण पापी के प्रायश्चित्त से क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र को क्रम से ३/४, १/२ एवं १/४ माग का प्रायश्चित्त करना पड़ता था। गुरुपत्नी के साथ व्यभिचार करने के विषय में आदिकाल से ही प्रायश्चित्त की व्यवस्था रही है। गौतम (२३।८-११), आप० ध० सू० (१।९।२५।१-२), बौधा० ध० सू० (२।१।१४-१६), वसिष्ठ (२०१३-१४) एवं मनु (११।१०३-१०४) ने व्यवस्था दी है कि अपराधी को अपना अपराध स्वीकार कर लेना चाहिए और तब उसे तप्त लौह पर शयन करना होगा या नारी की तप्त लौहमूर्ति का आलिंगन करना होगा या उसे अपने लिंग एवं अण्डकोशों को काटकर उन्हें लिये हए दक्षिण या दक्षिण-पूर्व की दिशा में तब तक सीधे चलते जाना होगा जब तक वह मत होकर गिर न पड़े और तभी वह (इस प्रकार की मृत्यु से) शुद्ध हो सकेगा। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२५९) के मत से उपयुक्त तीनों पृथक् प्रायश्चित्त नहीं हैं, किंतु इनमें दो, यथा नारी की तप्त लौह-मूर्ति का आलिंगन एवं तप्त लौह पर शयन ९. तप्ते लौहशयने गुरुतल्पगः शयीत । सूमी वा श्लिष्येज्ज्वलन्तीम् । लिगं वा सवृषणमुत्कृत्याञ्जलावाधाय दक्षिणाप्रतीची बजेदजिह्यमा शरीरपातात् । गौ० (२३।८-१०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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