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धर्मशास्त्र का इतिहास
उत्पन्न हो गयी थी तो उसने अपनी पत्नी के साथ किसी आढ्य व्यक्ति द्वारा छोड़े गये कुलथी के दाने खाये थे और उसके जल को इस बात पर ग्रहण नहीं किया था कि जल तो कहीं भी प्राप्त हो सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि आपत्काल में उच्छिष्ट भोजन भी किया जा सकता है, किन्तु जब ऐसा न हो तो ब्रह्मज्ञानी को भी भोजन-सम्बन्धी शास्त्रविहित नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। वेदान्तदर्शन (३।४।२८) में इस विषय में एक सूत्र है; 'सर्वान्नानुमतिश्च प्राणात्यये तद्दर्शनात् ।' मनु (१०।१०४) ने कहा है कि जब कोई व्यक्ति विपत्ति-काल में (जब कि जीवन-भय भी उत्पन्न हो गया हो) किसी से भी कुछ ग्रहण कर लेता है तो उसे पाप नहीं लगता, क्योंकि आकाश में पंक नहीं रहता। मन (१०।१०५-१०८) ने अजीगत (जिसने भूख से पीड़ित होकर अपने पुत्र की हत्या करनी चाही थी), ऋषि वामदेव (जिसने भूख से विकल होकर प्राण-रक्षा के लिए कुत्ते का मांस खाना चाहा), भरद्वाज (जिसने अपने पुत्र के साथ क्षुधापीड़ित होकर वन में वृधु या बृभु से गौएँ लीं) एवं विश्वामित्र (जिसने भूख से आहत होकर सदसत का विचार रखते हुए भी चाण्डाल से कुत्ते की जंघा प्राप्त की थी) की गाथाओं की ओर संकेत किया है।
विभिन्न प्रकार के पक्षियों के खाने पर विष्णु (५१।२९ एवं ३१) ने तीन दिनों या एक दिन के उपवास की व्यवस्था दी है। विभिन्न प्रकार की मछलियों के खाने के विषय में देखिए विष्णुध० सू० (५१।२१)।
सोने की चोरी के महापातक के विषय मे हमने इस खण्ड के अध्याय ३ में बहुत कुछ पढ़ लिया है। चोर को एक गदा लेकर राजा के पास पहुँचना होता था और राजा उसे एक ही वार में मार डालने का प्रयास करता था। आप० ध० सू० (१।९।२५।४) ने इसकी ओर संकेत किया है और विकल्प से (१।९।२५।६-७) अग्नि-प्रवेश या कम खाते-खाते मर जाने की व्यवस्था दी है। ८० रत्तियों की तोल या इससे अधिक की तोल तक (ब्राह्मण के) सोने की चोरी में सभी वर्गों के लिए चोरों का प्रायश्चित्त मृत्यु के रूप में था (मनु ८।१३४ एवं याज्ञ० १।३६३), किन्तु ब्राह्मण को इस महापातक के लिए वन में बारह वर्षों तक चीथड़ों में लिपटकर प्रायश्चित्त-स्वरूप रहना पड़ता था, या वही प्रायश्चित्त करना पड़ता था जो ब्रह्महत्या (मनु ११।१०१) या सुरापान (याज्ञ० ३।२५८) के लिए व्यवस्थित था। सोने की चोरी में चोर अपने मार के बराबर सोना भी दे सकता था या उसे इतना धन देना पड़ता था कि किसी ब्राह्मण के कुल का ब्राह्मण के जीवन-काल तक भरण-पोषण हो सके (मिताक्षरा, याज्ञ० ३।२५८)। आप० ध० सू० (१।९।२५।८) ने इस विषय में एक वर्ष तक कृच्छ्र करने को कहा है और एक उद्धरण दिया है-उन्हें, जिन्होंने (सोने की) चोरी की है, सुरा पी है या गुरु-पत्नी से सम्बन्ध किया है, किन्तु उसे नहीं जिसने ब्रह्महत्या की है, दिन के चौथे काल में थोड़ा खाना चाहिए, दिन में तीन बार स्नान करना चाहिए, दिन में खड़ा रहना चाहिए और रात्रि में बैठे रहना चाहिए; इस प्रकार करते-करते तीन वर्षों के उपरान्त वे पाप-मुक्त हो जाते हैं। निबन्धों ने चोरी गये सोने की तोल, जिसकी चोरी हुई है उसके गणों, चोर के गुणों, दोनों की जातियों, एक बार या कई बार चोरी के दुहराने, चोरी गयी वस्तु के मूल्य एवं रूप, समय एवं स्थान आदि के आधार पर विभिन्न प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है। देखिए प्राय० वि० (पृ० ११७
७. अजीगतं की गाथा के लिए देखिए ऐतरेय ब्राह्मण (७।१३-१६) एवं इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय २७ । अग्वेद (६॥४५॥३१-३२) में बृभु को पणियों का बढ़ई कहा गया है और उसकी दया की प्रशंसा की गयी है। विश्वामित्र एवं उनके द्वारा चाण्डाल की झोपड़ी से कुत्ते के पैर के चुराने को गाथा शान्तिपर्व (१४१।२६-९६) में दी हुई है।
८. कृच्छसंवत्सरं वा चरेत् । अथाप्युदाहरन्ति। स्तेयं कृत्वा सुरां पीत्वा गुरुदारं च गत्वा ब्रह्महत्यामकृत्वा चतुर्थकाला मितभोजनाः स्युरपोभ्यवेयुः सवनानुकल्पम् । स्थानासनाभ्यां विहरन्त एते त्रिभिर्वरप पापं नुवन्ते । आप०५० पू० (१।९।२५।८-१०)।
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