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________________ निषिद्ध भोजन का प्रायश्चित्त १०६३ प्राय प्रकाश ने कल्पतरु के इस मत की आलोचना की है। बृहस्पति का कथन है कि गौतम आदि ने केवल खट्टे या बासी Free (मादक) की छूट दी है न कि सुरा की, जिसका पीना महापातक है। जातूकर्ण्य (परा० माघ २, भाग २, पृ० ८०) ने कहा है कि यदि उपनयन के पूर्व कोई बच्चा मूर्खतावश कोई मद्य पी ले तो उसके माता-पिता या भाई को प्रायश्चित्तस्वरूप तीन कृच्छ करने पड़ते हैं । अंगिरा, आपस्तम्बस्मृति ( ३।७ ), लघु हारीत ( ३४-३५), बृहद्यम (३।१-२) ने भी कहा है कि उन बच्चों के लिए जो अभी ५ वर्ष के ऊपर एवं १० वर्ष से नीचे हैं, माई, पिता या मित्र प्रायश्चित्त के लिए प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।२२।२२-२६) ने पुनरुपनयन के समय क्या करना चाहिए और क्या छोड़ देना चाहिए आदि के विषय में व्यवस्था दी है। उसके मत से बाल कटाना एवं बुद्धि-वर्धक कृत्य करना आदि वैकल्पिक ,किंतु उसने देवताओं, समय एवं मन्त्रोच्चारण के विषय में स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । वसिष्ठ (२०११८) ने मनु (११।१५१ ) को इस विषय में उद्धृत किया है, और विष्णु ( ५१।४-५ ) ने भी यही बात कही है। विष्णु ( ५१।२ - ३ ) ने शरीर से निकलने वाली (बारह प्रकार की ) वस्तुओं को पीने या कतिपय मद्यों को पीने या लशुन (लहसुन) या पियाज या शलजम या किसी अन्य ऐसे गंध वाले पदार्थों के खाने, ग्रामशूकरों, पालतू मुर्गों, बन्दरों एवं गायों का मांस खाने के अपराध में चान्द्रायण व्रत की व्यवस्था दी है और कहा है कि ऐसे पापियों का पुनरुपनयन होना चाहिए। स्मृतियों ने खान-पान के विषय में दोषों के लिए विभिन्न प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है, यथा-सुरा के लिए प्रयुक्त किसी पात्र में जल पीना, किसी चाण्डाल या धोबी या शूद्र के घर के पात्र में जल पीना, न पीने योग्य दूध का सेवन आदि ( गौतम १७।२२-२६, याज्ञ० १।१७०, मनु ५।८-१० ) । इस विषय में हम नहीं लिखेंगे, क्योंकि वे संख्या में अधिक हैं और परिस्थितियों पर ही उनका प्रयोग भी आधारित है। शंख का कथन है कि मक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी बहुत से पदार्थ विशेषत: ब्राह्मणों के विषय में, उनका निर्णय शिष्टों ( सम्मानार्ह व्यक्तियों की परिषद् के सदस्यों) पर निर्भर है। बृहस्पति ने व्यवस्था दी है कि खाने एवं चाटने की निषिद्ध वस्तुओं के सेवन या मानव- वीर्य, मूत्र या मल के सेवन पर चान्द्रायण व्रत द्वारा शुद्धि होती है। संवर्त, शंखलिखित जैसे ऋषियों ने उदार मत भी दिया है और गोमांस एवं मानवमांस के सेवन के लिए भी चान्द्रायण व्रत की व्यवस्था दी है।' सामविधानब्राह्मण ( १/५/१३ ), मनु ( ११।१६०) आदि ने एक सामान्य नियम प्रतिपादित किया है कि यदि कोई व्यक्ति आंतरिक शुचिता चाहता है तो उसे निषिद्ध भोजन नहीं करना चाहिए, यदि वह अज्ञानवश ऐसा भोजन कर ले तो उसे प्रयास करके वमन कर देना चाहिए और यदि वह ऐसा न कर सके तो उसे शीघ्रता से प्रायश्चित्त कर लेना चाहिए ( अज्ञान से निषिद्ध भोजन कर लेने पर हलका प्रायश्चित्त होता है) । बहुत प्राचीन काल से ही निषिद्ध भोजन के प्रतिबन्धों के विषय में अपवाद रखे गये हैं। छान्दोग्योपनिषद् (१।१०) में उषस्ति चाक्रायण की गाथा में कहा गया है कि जब कुछ देश में तुषारपात या टिड्डी दल से नाशकारी स्थिति ६. अलेह्यानामपेयानामभक्ष्याणां च भक्षणे । रेतोमूत्रपुरीषाणां शुद्धिश्चान्द्रायणं स्मृतम् ॥ बृहस्पति ( अपरार्क पू० ११६४; परा० मा० २, भाग १, १०३६७) । गोमांसं मानुषं चैव सूनिहस्तात्समाहृतम् । अभक्ष्यं तद् भवेत्सर्वं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ संवर्त (१९७, अपराकं पृ० ११६५; पराशरमाधवीय २, भाग १, पृ० ३६७ ); शृगालकुक्कुट [ष्ट्रि-कन्याव-वानर- खरोष्ट्र-गजवाजि-विश्वराह-गोमानुवमांसभक्षणे चान्द्रायणम् । शंखलिखित (अपरार्क, पृ० ११६६: परा० मा० २, भाग १, पृ० ३६८ ) । और देखिए गौ० (२३।४-३), वसिष्ठ ( २३।३०), मनु (११ श १५६), विष्णु ( ५१।३-४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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