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धर्मशास्त्र का इतिहास है कि यह भयानक प्रायश्चित्त उसके लिए है जो जान-बूझकर लगातार सुरापान करता है (यहाँ अन्न से बनी सुरा की ओर संकेत है)। मनु (११०९२) एवं याज्ञ० (३।२५४) ने उपर्युक्त प्रायश्चित्त के स्थान पर एक अन्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है-पापी को एक वर्ष (याज्ञ० के मत से तीन वर्षों) तक केवल एक बार भोजन करना चाहिए (और वह भी रात्रि में कोद्रव चावल का भात या खली की रोटी खाना चाहिए), उसे गाय के बालों से बना वस्त्र धारण करना चाहिए, सिर पर जटा होनी चाहिए और हाथ में सुरा के प्याले के साथ छड़ी होनी चाहिए।
ऋषियों ने क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए भी सुरापान करने पर यही प्रायश्चित्त बताया है। हमने पहले देख लिया है कि सुरापान के अपराधी क्षत्रिय एवं वैश्य को ब्राह्मण अपराधी की अपेक्षा क्रम से तीन-चौथाई एवं आधा प्रायश्चित्त करना पड़ता था (विष्णु, प्राय० वि० पृष्ठ १०२ में उद्धृत) । यह प्रायश्चित्त पेट में पड़े हुए खाद्य पदार्थो का वमन कर देने के उपरान्त किया जाता था। मदनपारिजात (पृ० ८१८), प्रायश्चित्तविवेक (पृ० १०४), प्रायश्चित्तप्रकरण (पृ० ४३), मिता० (याज्ञ० ३।२४) आदि के मत से १२ वर्षों का प्रायश्चित्त उस व्यक्ति के लिए है जो अज्ञानवस या बलवश आटे से बनी हुई सुरा पी लेता है। गौतम (२३।२-३), याज्ञ० (३।२५५), मनु (११११४६), अत्रि (७५) के मत से अज्ञान में मद्यों, मानव वीर्य, मल-मूत्र को पी जानेवाले तीन उच्च वर्गों के व्यक्तियों को तप्तकृच्छ्र नामक प्रायश्चित्त करके पुन: उपनयन-संस्कार करना पड़ता है। वसिष्ठ (२९।१९) ने अज्ञान में किसी भी प्रकार का मद्य पी लेने पर कृच्छ एवं अतिकृच्छ्र की व्यवस्था दी है और घी पीने तथा पुनः उपनयन संस्कार करने की आज्ञा दी है। मनु (११।१४६) एवं याज्ञ० (३।२५५) के मतों के विषय में बहुत-सी व्याख्याएँ हैं जिन्हें हम यहां नहीं दे रहे हैं। बृहस्पति (मिता०, अपरार्क आदि द्वारा उद्धत) के कथन से गौडी (गुड़ से बनी), पैष्टी (आटे से बनी) माध्वी (मधु या महुवा से बनी) नामक सुरा पीनेवाले ब्राह्मण को क्रम से तप्तकृच्छ, पराक एवं चान्द्रायण प्रायश्चित्त करना पड़ता है। यह हलका प्रायश्चित्त उन्हें करना पड़ता है जो किसी अन्य दवा के न रहने पर इनका सेवन करते हैं।'
कोई ब्राह्मण आटे से बनी सुरा के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार के मद्य का सेवन करता है तो उसके लिए कई प्रकार के हलके प्रायश्चित्तों (यथा-समुद्र-गामिती नदी पर चान्द्रायण करना, ब्रह्मभोज देना, एक गाय एवं बैल का दान करना) की व्यवस्था दी हुई है (पराशर १२१७५-७६) । देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२५५) क्षित्रियों एवं वैश्यों को सुरा (पैष्टी, आटे से बनी) के अतिरिक्त अन्य मद्य पीने से कोई पाप नहीं लगता है और शूद्र पैष्टी सुरा भी पी सकता है। मिता० (याज्ञ० ३.२४३) का कथन है कि मनु (११३९३) ने यद्यपि ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए सुरा वजित मानी है, किन्तु उन बच्चों के लिए, जिनका उपनयन कृत्य नहीं हुआ है तथा अविवाहित लड़कियों के लिए भी सुरापान वर्जित है। यदि ऐसे लड़के या लड़कियाँ सुरापान के दोषी ठहरते थे तो उन्हें तीन वर्षों का (यदि अपराध अनजान में हुआ हो) या छः वर्षों का (यदि अपराध ज्ञान में हुआ हो) प्रायश्चित्त करना पड़ता था (देखिए प्राय० प्रकरण, पृ० ४८) । कल्पतरु ने गौतम (२।१) के आधार पर यह कहा है कि उपनयन के पूर्व लड़कों को खान-पान, बोली एवं व्यवहार में पूरी छूट है और अविवाहित लड़की को सुरापान करने पर पाप नहीं लगता। किन्तु प्राय० वि० (पृ० १०४) एवं
सर्वेऽवेब नराधिप। मतिपूर्व सुरापाने प्राणान्तिकमुदाहृतम् ॥ पेष्टीपाने तु ऋषिभिर्मेतरस्या कदाचन । भविष्य (दीपकलिका, याज्ञ० ३।२५३)।
५. गौडी पैष्टी तथा माध्वीं पीत्वा विप्रः समाचरेत् । सप्तकृच्छं पराकं च चान्द्रायणमनुक्रमात् ॥ ग्रहस्पति (मिता०, यान० ३।२५४; अपरार्क पृ० १०७३; परा० मा० २, भाग २, पृ० ८४; मदमपारिजात पृ० ८२१७ प्राय० सार० पृ०४२)।
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