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________________ सुरापान का प्रायश्चित १०६१ ( २३।१८-१९ ) एवं पराशर (१२।५-८) ने इन लोगों के लिए ( जो प्रत्यवसित कहे गये हैं) अन्य प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है। प्रायश्चित्तप्रकरण ( पृ० १५) एवं प्रायश्चित्तविवेक ( पृ० ७५ ) ने यम को उद्धृत कर प्रत्यय सितों के नौ प्रकार किये हैं और उनके लिए चान्द्रायण या तप्तकृच्छ्र की व्यवस्था दी है। यदि कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र जान बूझकर स्वयं किसी ब्राह्मण को मार डाले तो उसके लिए मृत्यु ही प्रायश्चित है, किन्तु अज्ञान में हुई ब्रह्महत्या के लिए, उसी पाप में ब्राह्मण को जो प्रायश्चित्त करना पड़ता है उसका उनके लिए क्रम से दूना, तिगुना या चौगुना प्रायश्चित्त करना पड़ता है। यदि कोई ब्राह्मण किसी क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र को मार डालता है तो केवल उपपातक लगता है, किन्तु यदि क्षत्रिय या वैश्य सोमयज्ञ में लगे हों और उन्हें कोई ब्राह्मण मार डाले तो पाप बड़ा होता है और प्रायश्चित्त भी मारी होता है (सामविधानब्राह्मण १।७।५, याज्ञ० ३।२५१, वसिष्ठ २०१३४) । याज्ञ० ( ३।२६६-२६७), मनु ( ११।१२६- १३० ) एवं आप० ध० सू० ( १।९।२४।१-४) के मत से क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र को मारने वाले के लिए अन्य प्रायश्चित्त भी हैं। क्षत्रिय के क्षत्रिय-हत्यारे को क्षत्रिय के ब्राह्मणहत्यारे से कुछ कम ( अर्थात् माग कम ) प्रायश्चित्त करना पड़ता है। मृत 'स्त्रियों को क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र पुरुषों के समान ही माना जाता था (याज्ञ० ३।२३६ एवं मनु ११ । ६६ ), किन्तु आत्रेयी या गर्भवती स्त्री के विषय में ऐसी बात नहीं थी ( गौ० २२।१७; आप० घ० सू० १।९।२४।५ एवं ९; बघा. घ० सू० २ १ १०, १२-१३; वसिष्ठ २०१३४; विष्णु० ५०1७-९), उनके हत्यारे को भारी प्रायश्चित्त करना पड़ता था । यदि द्विज-पत्नी सोमयज्ञ कर रही हो और उसे कोई मार डाले तो उसके हत्यारे को ब्रह्मघातक के समान प्रायश्चित करना पड़ता था । व्यभिचारिणी को मारने पर प्रेमी हत्यारे एवं उस स्त्री की जाति के अनुसार ही मारी प्रायश्चित करना पड़ता था ( गौ० २२।२६-२७, मन ११।१३८, याज्ञ० ३।२६८-६९ ) । मनु (११।२०८ = विष्णु ० ५४ | ३० ) एवं याज्ञ० ( ३।२९३) के मत से ब्राह्मण को धमकी देने या पीटने पर क्रम से कृच्छ या अतिकृच्छ्र तथा रक्त निकाल देने पर कृच्छ एवं अतिकृच्छ प्रायश्चित्त करने पड़ते थे। इन अपराधों के लिए सामविधानब्राह्मण (१।७।४) ने अन्य प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है। सुरापान करने पर ब्राह्मण को अति कठोर प्रायश्चित्त करने पर ही जीवन-रक्षा मिल सकती थी । गौतम ( २३|१), आप० घ० सू० ( ११९।२५।३), बौधा० घ० सू० (२।१।२१), वसिष्ठ (२०२२), मनु (११।९०-९१) एवं याज्ञ० ( ३।२५३ ) के मत से यदि कोई ब्राह्मण अन्न से बनी सुरा को ज्ञान में केवल एक बार भी पी ले तो उसका प्रायश्चित्त मृत्यु से ही बन पाता है, अर्थात् उसे उसी खौलती हुई सुरा को, या खोलते हुए गोमूत्र को, या खौलते हुए घीं, जल या ग्रीले गोबर को पीना पड़ता था, और जब वह पूर्णरूपेण इस प्रकार जल उठता था और उसके फलस्वरूप मर जाता था तो वह सुरापान के महापातक से छुटकारा पा जाता था। हरदत्त ( गौतम २३ । १ ) ने कहा दूध, ३. जलाग्न्युद्बन्धन भ्रष्टाः प्रव्रज्यानाशकच्युताः । विषप्रपतनप्रायशस्त्रघातहताश्च ये ।। नवंते प्रत्यवसिताः सर्वलोकबहिष्कृताः । चान्द्रायणेन शुध्यन्ति तप्तकृच्छ्रद्वयेन वा ॥ यम ( २२-२३), बृहद्यम ( ३-४), नारदपुराण । इनमें संन्यास को त्याग देने वाले एवं प्राण देने के लिए किसी के द्वार पर बैठने वाले भी सम्मिलित कर लिये गये हैं। ४. सुरापोऽग्निस्पर्शं सुरां पिबेत् । आप० घ० सू० (१।९।२५।३) ; सुरापस्य ब्राह्मणस्योष्णामासिञ्चेयुः सुरामास्ये मृतः शुध्येत् । गौ० (२३।१ ) ; सुरापाने कामकृते ज्वलन्तीं तां विनिक्षिपेत् । मुखे तया विनिर्दग्धे मृतः शुद्धिमवाप्नुयात् ॥ बृहस्पति (मिता०, याश० ३।२५३ ) : अपरार्क (पू० १०७१ ) ; प्राय० प्रकरण (१० ४३ ) ; प्रायेण धर्मशास्त्रेषु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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