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________________ १०६० धर्मशास्त्र का इतिहास मनु (१११७९), याज्ञ० (३।२४४ एवं २४६), वसिष्ठ (२०।२७-२८) एवं गौतम (२२१७-८ एवं ११) ने तीन अन्य प्रायश्चित्तों का उल्लेख किया है। किंतु वे, जैसा कि शंख ने कहा है, स्वतन्त्र रूप से पृथक् प्रायश्चित्त नहीं हैं। यदि कोई घातक १२ वर्षों का प्रायश्चित्त करते हुए ब्राह्मण पर आक्रमण करने वालों से युद्ध करता है और उसे बचा लेता है (या बसिष्ठ के मत से राजा के लिए युद्ध करता है) या ऐसा करने में मर जाता है तो वह तत्क्षण पापमुक्त हो जाता है और यदि वह युद्धोपरान्त जीवित रहता है तो उसे पूरी अवधि तक प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। यही बात अपने प्राणों को भयावह स्थिति में डालकर १२ गायों के बचाने में भी पायी जाती है। इसी प्रकार यदि घातक किसी ब्राह्मण के धन को छीनने वाले डाकू से युद्ध करता है और धन बचा लेता है या इस प्रयास में मर जाता है या बुरी तरह घायल हो जाता है (याज्ञ०, वसिष्ठ एवं गौतम के मत से तीन वार) तो वह ब्रह्महत्या के महापातक से मुक्त हो जाता है। मनु (११३८२), याज्ञ० (३।२४४), शंख एवं गौतम (२२।९) का कथन है कि अश्वमेघ के उपरान्त स्नान-कृत्य (अवभृथ) के लिए उपस्थित राजा एवं पुरोहितों के समक्ष यदि कोई ब्रह्मघातक अपराध उद्घोषित करता है और उनकी अनुमति पर स्नान करने में सम्मिलित हो जाता है तो वह पाप-मुक्त हो जाता है। हरदत्त के मत से यह एक पृथक् प्रायश्चित्त है, किन्तु मिता० (याज्ञ० ३।२४४) एवं अपराकं (पृ० १०५७) के मत से ऐसा नहीं है, प्रत्युत १२ वर्षों के प्रायश्चित्त की अवधि में ऐसा हो सकता है। याज्ञ० (३।२४५) का कहना है कि यदि घातक बहत दिनों से रुग्ण एवं यों ही मार्ग में पड़े हुए किसी ब्राह्मण या गाय की दवा करता है और अच्छा कर देता है तो वह ब्रह्महत्या के पाप से मक्त हो जाता है। पराशर (१२।६५-६७) ने व्यवस्था दी है कि ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्त के लिए व्यक्ति को समुद्र एवं रामसेतु को जाना चाहिए और ऐसा करते हुए उसे अपने पाप का उद्घोष करते हुए भिक्षा मांगनी चाहिए, छाता एवं जूता का प्रयोग नहीं करना चाहिए, पैदल चलना चाहिए, गोशाला, जंगलों, तीर्थों में एवं नदी-नालों के पास ठहरना चाहिए। सेतु पर पहुंचने पर समुद्र में स्नान करना चाहिए और लौटने पर ब्रह्म-भोज देकर विद्वान् ब्राह्मणों को १०० गौएँ दान में देनी चाहिए। जमदग्नि, अत्रि, कश्यप आदि ने (अपरार्क, पृ० १०६४-१०६५) ब्रह्महत्या के लिए कई प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है, जिन्हें हम यहाँ स्थानाभाव से नहीं दे रहे हैं। प्रायश्चित्तप्रकरण (प०१३),प्रायश्चित्तविवेक (प०७०-७१), स्मतिमक्ताफल (प्रायश्चित्त,प०८७३), दक्ष (३।२७-२८ एवं आप० ध० सू० १।९।२४ को उद्धृत करके) ने कहा है कि यदि कोई ब्राह्मण अपने पिता, माता, सहोदर भाई, वेद-गुरु, वेदज्ञ ब्राह्मण या अग्निहोत्री ब्राह्मण की हत्या करता है तो उसे अन्तिम श्वास तक प्रायश्चित्त करना पड़ता है। सोमयज्ञ में लिप्त पुरोहित की हत्या पर दूना प्रायश्चित्त करना पड़ता है। प्रायश्चित्तप्रकरण (पृ० १३) का कथन है कि इस विषय में हत्यारे को १२ वर्षों के प्रायश्चित्त के उपरान्त उतनी गौएँ दान में देनी पड़ती हैं जितने वर्ष उसकी अवस्था से लेकर १२० वर्षों (जीवन की अधिकतम अवधि) के बीच में बच रहते हैं। यदि कोई किसी ब्राह्मण को मार डालने की इच्छा से घायल कर देता है तो उसे ब्रह्महत्या के समान प्रायश्चित्त करना पड़ता है (याज्ञ० ३।२५२, गौ० २२।११)। मिता० ने व्याख्या की है कि यह नियम का अतिदेश (विस्तार) मात्र है और प्रायश्चित्त केवल ९ वर्षों का होता है। जो महापातक ब्रह्महत्या या सुरापान के समान कहे गये हैं उनके प्रायश्चित्त केवल उनके लिए व्यवस्थित प्रायश्चित्तों से आधे होते हैं। जो व्यक्ति आत्महत्या की इच्छा कर जल या अग्नि के प्रवेश से, या लटककर मर जाने से, विष से, या प्रपात से गिरकर, या उपवास से, मंदिर के कंगूरे से गिरकर या पेट में छुरा भोंक लेने से बच जाता है उसे तीन वर्षों का प्रायश्चित करना पड़ता है (प्राय० प्रक०, पृ० १५)। वसिष्ठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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