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________________ ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्त १०५९ मूंछे मुंडा सकता है, या वह किसी आश्रम में या पेड़ के तने के नीचे रह सकता है। इस प्रकार रहते हुए उसे ब्राह्मणों एवं गायों की सेवा करनी चाहिए तथा ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना चाहिए (मनु १११७८ एवं ८१)। बारह वर्षों के उपरांत वह ब्रह्महत्या के महापातक से मुक्त हो जाता है। (२) आप० ध० सू० (१।९।२५।१२), गौतम (२२।३), मनु (११।७२) एवं याज्ञ० (३।२४८) के मत से यदि ब्रह्मघातक क्षत्रिय हो और उसने जान-बूझकर हत्या की हो तो वह चाहे तो युद्ध करने चला जाय, उसके साथ युद्ध करनेवाले लोग उसे ब्रह्मघातक समझकर मार सकते हैं। यदि हत्यारा मर जाय या घायल होकर संज्ञाशून्य हो जाय और अन्त में बच भी जाय तो वह महापातक से मुक्त हो जाता है। (३) आप० ध० ० (१।९।२५।१३), वसिष्ठ (२०१२५-२६), गौतम (२२।८), मनु (११६७४) एवं याज्ञ ० (३।२४७) का कथन है कि हत्यारा किसी कुल्हाड़ी से अपने बाल, चर्म, रक्त, मांस, मांसपेशियां, वसा, अस्थियां एवं मज्जा काट-काटकर साधारण अग्नि में (उसे मृत्यु-देवता समझकर) आहुतियों के रूप में दे दे और अन्त में अपने को अग्नि में (मन १६७३ के अनुसार सिर नीचा करके तीन बार) झोंक दे। मदनपारिजात एवं भविष्य. (प्राय० प्रकाश द्वारा उद्धृत) के मत से यह प्रायश्चित्त क्षत्रिय द्वारा की गयी ब्रह्महत्या के लिए व्यवस्थित है। (४-८) ब्रह्मघातक अश्वमेघ या गोसव या अभिजित् या विश्वजित् या तीन प्रकार वाला अग्निष्टुत् (मनु १११७४) यज्ञ कर सकता है । अश्वमेध केवल राजा या सम्राट् कर सकता है। अन्य यज्ञ तीन उच्च वर्णों का कोई घातक कर सकता है। ये यज्ञ केवल उसके लिए हैं जो अनजान में ही ब्रह्महत्या करता है (कुल्लूक, मनु १११७४) । विष्णु० (अध्याय ३५, अन्तिम श्लोक) के मत से किसी भी महापातक का अपराधी अश्वमेध या पृथिवी के सभी तीर्थस्थानों की यात्रा करके शुद्ध हो सकता है। (९) मनु (११७५) के अनुसार ब्रह्महत्या के महापातक से छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति सीमित भोजन करते हुए आत्मनिग्रहपूर्वक चारों में किसी एक वेद के पाठ के साथ १००० योजनों की पैदल यात्रा कर सकता है। कुल्लूक (मनु ११७५) का कथन है कि यह प्रायश्चित्त केवल उसके लिए है जिसने किसी साधारण ब्राह्मण (जो वेदज्ञ या विद्वान् आदि न हो) की हत्या अनजान में की है। (१०) मनु (१११७६) के मत से ब्रह्मघातक किसी वेदज्ञ को अपनी सारी सम्पत्ति दान में देकर छुटकारा पा सकता है। (११) मन (१११७६) एवं याज्ञ० (३१२५०) का कथन है कि घातक किसी सदाचारी एवं वेदज्ञ ब्राह्मण को उतनी सम्पत्ति दान दे सकता है जिससे वह ब्राह्मण जीवन भर एक सुसज्जित घर में रहकर जीविका चला सके। ऐसा गोविन्दानन्द का मत है। किन्तु मिता० (याज्ञ० ३२५०) का कथन है कि उपर्युक्त (१०) संख्यक एवं यह पृथक्-पृथक् प्रायश्चित्त नहीं हैं, प्रत्युत दोनों एक साथ जुड़े हुए हैं, अर्थात् यदि हत्यारा सन्तानहीन हो तो वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान कर सकता है, किन्तु यदि वह संतानयुक्त हो तो केवल एक सुसज्जित घर दे सकता है। यह श्यास्या अच्छी है। और देखिए स्मृत्यर्थसार (पृ० १०५)। (१२) मनु (१११७७) एवं याज्ञ० (३।२४९) के मत से घातक नीवार, दूध या घृत पर जीवन-यापन करता हुआ सरस्वती नदी की शाखाओं की यात्रा कर सकता है। भविष्य० एवं कुल्लूक के मत से यह व्रत उस व्यक्ति के लिए है जिसने किसी साधारण ब्राह्मण (जिसने विद्या अर्जन न किया हो) की हत्या जान-बूझकर की हो और जो स्वयं धनवान् हो किन्तु वेदज्ञ न हो। अपरार्क, सर्वजनारायण एवं राघवानन्द ने व्याख्या की है कि घातक को समुद्र से ऊपर सरस्वती के मूल स्रोत की ओर जाना चाहिए। (१३) मनु (१११७७) एवं याश० (३।२४९) ने व्यवस्था दी है कि उसको वन में सीमित भोजन करते हुए वेद की संहिता का तीन बार पाठ करना चाहिए। इससे प्रकट होता है कि वह केवल संहिता का पाठ कर सकता है, पदपाठ या क्रमपाठ नहीं कर सकता। भविष्य एवं कूल्लक के मत से यह प्रायश्चित्त केवल उसके लिए है जिसने केवल जन्म से ब्राह्मण (जो वेदज्ञ न हो) कहलाने वाले की हत्या अनजान में की हो। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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